Babubhai Mistry | भारतीय सिनेमा में ट्रिक फोटोग्राफी के पहले उस्ताद माने जाने वाले बाबूभाई मिस्त्री की रोचक कहानी | Biography
"आलमआरा"(1931) के बाद भारतीय फिल्मों को आवाज़ मिल गई थी। उस ज़माने में देश का सिनेमा अपने बाल्यकाल में था। तब भारत में कोई फिल्म ट्रेनिंग स्कूल या इंस्टिट्यूट नहीं था। ना ही आज के जैसी तकनीक थी। कंप्यूटर की तो कल्पना भी किसी ने नहीं की थी।
लेकिन उसी दौर में "प्रकाश पिक्चर्स" के शंकरभाई भट्ट ने स्पेशल इफैक्ट्स से भरपूर अंग्रेजी फिल्म "द इनविज़िबल मैन" से प्रभावित होकर वैसी ही फिल्म हिंदी में बनाने का फैसला किया। शंकरभाई भट्ट के उस ड्रीम प्रोजेक्ट के स्पेशल इफैक्ट्स की ज़िम्मेदारी ली मात्र 18 साल के एक लड़के ने जिसका नाम था किशोर बाबूभाई मिस्त्री।
Story of Babubhai Mistry - Photo: Social Media
परदे पर अदृश्य इंसान को दर्शाने के लिए Babubhai Mistry ने बिल्कुल देसी तरीके अपनाए। एक काले पर्दे पर हल्की सी रोशनी में उन्होंने रोज़ के इस्तेमाल में होने वाली चीज़ों को पतले काले धागे से चलाया। Babubhai Mistry का वो प्रयोग काम कर गया। कहना चाहिए कि ज़बरदस्त चला। बाबूभाई फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। और लोगों ने उन्हें काला धागा नाम दे दिया।
जो फिल्म बनी थी उसका नाम था "ख़्वाब की दुनिया।" अंग्रेजी में उसे नाम दिया गया था "ड्रीम लैंड।" उस फिल्म के डायरेक्टर थे विजय भट्ट। संगीत दिया था लल्लूभाई नायक ने। गीत लिखे थे सम्पतलाल श्रीवास्तव अनुज ने। और फिल्म के मुख्य कलाकार थे जयंत(अमजद खान के पिता), सरदार अख़्तर, शीरीन(इमरान हाशमी की दादी की बहन), उमाकांत, इस्माईल, माधव मराठे व ज़हूर।
05 सितंबर 1918 को गुजरात के सूरत में Babubhai Mistry का जन्म हुआ था। वो मात्र 14 साल के ही थे जब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। पिता मकान बनाने के ठेके लिया करते थे। चूंकि Babubhai Mistry घर के सबसे बड़े बेटे थे तो मां और नौ छोटे भाई-बहनों का ध्यान अब उन्हें ही रखना था।
इसलिए काम की तलाश में वो अपने चाचा के पास मुंबई चले आए। उनके चाचा "कृष्णाटोन" नामक एक फिल्म कंपनी में आर्ट डायरेक्टर थे। उन दिनों उस फिल्म कंपनी में खूब फिल्में बन रही थी।
हरीशचंद्र, हीर रांझा, लैला मजनूं, पाक दामन, घर की लक्ष्मी, कृष्णावतार व नवचेतन नामक "कृष्णाटोन" की फिल्में बढ़िया चली भी थी।
"कृष्णाटोन" की ही फिल्म नवचेतन से टॉकी फिल्मों के शुरुआती दौर के नामी म्यूज़िक डायरेक्टर मधुलाल दामोदर मास्टर का करियर शुरू हुआ था। बाबूभाई के चाचा ने अपनी तरफ से उनकी खूब मदद की।
चाचा की सिफारिश पर ही 1933 में आई फिल्म हातिमताई में बाबूभाई मिस्त्री को बतौर असिस्टेंट आर्ट डायरेक्टर नौकरी मिल गई। वो फिल्म "भारत मूवीटोन" के बैनर तले बनी थी।
उस फिल्म के डायरेक्टर थे जी.आर.सेठी "शाद"। उन्होंने ही फिल्म की कहानी व गीत भी लिखे थे। फिल्म में संगीत दिया था मधुलाल दामोदर मास्टर ने।
उन दिनों बाबूभाई मिस्त्री को फिल्मों के पोस्टर बनाने का काम दिया गया था। साथ ही सेट निर्माण में भी उन्हें हाथ बंटाना पड़ता था। उस नौकरी के दौरान बाबूभाई ने फिल्म निर्माण के और भी पहलुओं पर ध्यान देना शुरू कर दिया।
जल्द ही उन्होंने अन्य डिपार्टमेंट्स का काम भी सीखा और काम करने भी लगे। गुज़रते वक्त के साथ जैसे ही उनकी जान-पहचान बढ़ी, लोगों का भरोसा भी उन पर बढ़ता चला गया।
उसी दौरान ही बाबूभाई मिस्त्री की जान-पहचान शंकरभाई भट्ट विजय भट्ट से हुई थी। उस वक्त शंकरभाई भट्ट अपने ड्रीम प्रोजेक्ट "ख्वाब की दुनिया" को लेकर माथापच्ची कर रहे थे।
उस दौर में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को स्पेशल इफैक्ट्स की ज़रा सी भी जानकारी नहीं थी। किसी स्पेशलिस्ट का होना तो बहुत दूर की बात थी। लेकिन बाबूभाई ने अपना दिमाग चलाया। और उनके लिए वो काम आसान होता चला गया।
उसी दौर में वाडिया ब्रदर्स की फिल्म कंपनी वाडिया मूवीटोन भी अपनी धार्मिक, स्टंट और फैंटेसी फिल्मों के लिए मशहूर थी। उनकी फिल्मों में तो स्पेशल इफैक्ट्स का ही सारा खेल होता था।
जब "ख्वाब की दुनिया" कामयाब हुई तो वाडिया ब्रदर्स ने बाबूभाई मिस्त्री से मुलाकात करके अपनी फिल्मों के स्पेशल इफैक्ट्स का ज़िम्मा उन्हें सौंप दिया। यानि कहा जा सकता है कि बाबूभाई मिस्त्री ही भारतीय सिनेमा में स्पेशल इफैक्ट्स के जनक थे।
अपने करियर में बाबूभाई मिस्त्री ने कई फिल्मों के स्पेशल इफैक्ट्स पर काम किया। उन्होंने नूर-ए-यमन, गुलसनोवर, अंगारे, सर्कसवाली, अलीबाबा और चालीस चोर, अलादीन और जादुई चिराग, वीर राजपुतानी, जगदगुरू शंकराचार्य, मिस्टर एक्स, नवदुर्गा, पाकदामन, जनम जनम के फेरे, लव इन टोक्यो, अंगुलीमाल, हमराही, नागिन, जुगनू, मेरा नाम जोकर, धर्मवीर, वॉरंट, बारूद, ड्रीमगर्ल, खुद्दार, ज़माने को दिखाना है व बंडलबाज़ जैसी फिल्मों के स्पेशल इफैक्ट्स तैयार किए।
फिल्मों के अलावा उन्होंने कुछ टीवी शोज़ जैसे महाभारत, विश्वामित्र, शिवमहापुराण और कृष्णा के भी स्पेशल इफैक्ट्स का काम संभाला था। अलादीन और जादुई चिराग का उड़ता हुआ कालीन, औरत फिल्म के क्लाईमैक्स में बिल्डिंगों का गिरना, और ड्रीमगर्ल फिल्म के टाइटल सॉन्ग में हेमा जी को उड़ते हुए दिखाना। अपनी कल्पनाशक्ति से ही बाबूभाई मिस्त्री ने ये सभी काम अंजाम दिए थे।
साल 1942 में वाडिया ब्रदर्स अलग हो गए थे। होमी वाडिया ने अपने बड़े भाई जे.बी.एच वाडिया की वाडिया मूवीटोन छोड़ दी। उन्होंने वसंत पिक्चर्स नाम से अपना नया बैनर शुरू किया।
उस दौर में बाबूभाई मिस्त्री भी फिल्म निर्देशन में हाथ आज़माने के लिए मचल रहे थे। उनकी वो ख्वाहिश वाडिया ब्रदर्स ने ही पूरी की। जे.बी.एच वाडिया ने बाबूभाई को वाडिया मूवीटोन की मुकाबला के निर्देशन का काम दिया।
होमी वाडिया ने अपने नए-नए शुरु हुए बैनर वसंत पिक्चर्स की पहली फिल्म मौज के निर्देशन की ज़िम्मेदारी बाबूभाई को दी। इन दोनों फिल्मों में बाबू भाई के असिस्टेंट बटुक भट्ट थे। बड़ी मेहनत से बाबूभाई ने इन दोनों फिल्मों को बनाया। लेकिन दोनों ही फिल्में कुछ खास ना चल सकी।
बाबू भाई आगे भी फिल्म डायरेक्शन में अपना हाथ आज़माते रहे। उन्होंने हनुमान पाताल विजय(1951), नवदुर्गा(1953), तिलोत्मा(1954) और श्री कृष्ण भक्ति(1955) जैसी फिल्मों का डायरेक्शन किया। फिर 1956 में आई वो फिल्म जिसने बाबूभाई मिस्त्री को बतौर डायरेक्टर भी मशहूर कर दिया।
उस फिल्म का नाम था सती नागकन्या। वो मुक्ति फिल्म्स के बैनर तले बनी थी। फिल्म में संगीत दिया था एस.एन.त्रिपाठी ने। मुख्य कलाकार थे निरूपा राय, मनहर देसाई, पी.कैलाश, इंदिरा बंसल, महिपाल व एस.एन.त्रिपाठी।
सती नागकन्या की ज़बरदस्त सफलता के बाद बाबूभाई मिस्त्री के पास फिल्मों की कोई कमी नहीं रही। वो इंडस्ट्री के सबसे बिज़ी फिल्मकारों में से एक हो गए। आ
गे चलकर बाबूभाई ने पवनपुत्र हनुमान, नागलोक, सम्राट चन्द्रगुप्त, माया बाज़ार, मदारी, चन्द्रसेना, बेदर्द ज़माना क्या जाने व माया मछिन्दर(1960) का भी निर्देशन किया। उनके द्वारा निर्देशित और कुछ बड़ी फिल्में हैं सम्पूर्ण रामायण, सुनहरी नागिन, पारसमणि, महाभारत, संग्राम, भरत मिलाप, हर हर गंगे, अनजान है कोई, भगवान परशुराम, सात सवाल और हातिमताई, डाकू मानसिंह, महाबली हनुमान, कलयुग और रामायण व अलख निरंजन।
बाबूभाई ने एक तेलुगू व नौ गुजराती फिल्मों का निर्देशन भी किया था। साथ ही टीवी शो शिव महापुराण का भी निर्देशन किया था। 1958 में आई बाबूभाई मिस्त्री द्वारा निर्देशित फिल्म सम्राट चंद्रगुप्त से संगीतकार कल्याणजी विरजी शाह के करियर की शुरुआत हुई थी।
जबकी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने बाबूभाई की ही पारसमणि से अपना करियर शुरु किया था। पीटर परेरा, रवि नगाईच, डैनी देसाई व सत्येन जैसे एक समय के फिल्म इंडस्ट्री के नामी ट्रिक फोटोग्राफी व स्पेशल इफैक्ट्स स्पेशलिस्ट बाबूभाई मिस्त्री के ही असिस्टेंट हुआ करते थे।
बहुत साल पहले बाबूभाई को गले का कैंसर हो गया था। इस वजह से उनके गले से स्वरग्रंथि निकाल दी गई थी। बोलने के लिए बाबूभाई मिस्त्री को एक मशीन की मदद लेनी पड़ती थी।
बाबूभाई मिस्त्री की बहन के एक बेटे, यानि बाबूभाई के भांजे कमलेश कापड़िया एक वक्त पर सहारा न्यूज़ चैनल में कैमरा व स्टूडियो प्रभारी हुआ करते थे। उनके मुताबिक बाबूभाई की सर्जरी 1963 में उस वक्त हुई थी जब पारसमणि रिलीज़ ही हुई थी। उन्हें काफी तकलीफ उठानी पड़ी थी तब।
लेकिन तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए बाबूभाई मिस्त्री ने खुद को इंडस्ट्री के शीर्ष फिल्मकारों में शुमार कराया। टाटा मैमोरियल कैंसर हॉस्पिटल ने भी बाबूभाई के जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी।
1990 में आई जितेंद्र स्टारर हातिमताई बाबूभाई मिस्त्री की आखिरी फिल्म थी। इसके बाद बाबूभाई ने शिव महापुराण नामक एक टीवी शो डायरेक्ट किया। और फिर बढ़ती उम्र के चलते वो रिटायर हो गए। 90 के दशक में ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया।
उनकी कोई औलाद नहीं थी। इसलिए पत्नी की मौत के बाद बाबूभाई एकदम अकेले हो गए। उस वक्त उनकी सबसे छोटी बहन ने उनकी सेवा की। 20 दिसंबर 2010 को 92 साल की उम्र में बाबूभाई मिस्त्री का निधन हो गया।
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