Bharat Vyas | भुलाए जा चुके एक महान गीतकार जिनके गीतों का जलवा हमेशा कायम रहेगा | Biography

"बरसे गगन, मेरे बरसे नयन। देखो तरसे है मन अब तो आजा। शीतल पवन ये लगाए अगन ओ सजन अब तो मुखड़ा दिखा जा। तूने भली रे निभाई प्रीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं।" वैसे तो मुझे पता है कि मेरे गुणी पाठकों ने ये गीत सुना ही होगा। 

लेकिन किसी ने नहीं सुना हो तो उनसे रिक्वेस्ट है कि आप इस लेख को पढ़ने के बाद एक बार साल 1959 में आई फिल्म रानी रूपमती का ये गीत ज़रूर सुनिएगा। लता जी की गायकी के तो कहने ही क्या। लेकिन ये गीत लिखने वाले कवि के आप कद्रदान हो जाएंगे। उन कवि का नाम है Bharat Vyas. 

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Biography of Song Writer Bharat Vyas - Photo: Social Media

06 जनवरी 1918 को Bharat Vyas जी का जन्म अपने ननिहाल बीकानेर में हुआ था। Bharat Vyas जी के दादा पंडित घनश्याम दास जी व्यास बहुत नामी ज्योतिष शास्त्री थे। जब भरत जी के दादा ने उनकी कुंडली बनाई थी तो कहा था कि इस बच्चे की कुंडली में राजसी योग है। ये बच्चा बहुत तेजस्वी होगा। ये अपना बहुत नाम करेगा। 

उनकी बात एकदम सही भी निकली। छोटी उम्र से ही भरत की जी प्रतिभा नज़र आने लगी थी। स्कूल में होने वाली वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भरत व्यास जी ने हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। 10-12 साल की उम्र तक आते-आते तो वो कविताएं लिखने लगे थे। 

भरत जी अपने दादा के साथ तब चुरू में रहते थे। उन्होंने चुरू में कृष्ण लीला का आयोजन शुरू किया था। भरत जी इसमें कृष्ण व उनके छोटे भाई बी.एम.व्यास गोपी बना करते थे।

Bharat Vyas जी के एक बड़े भाई भी थे जिनका नाम था पंडित जनार्दन व्यास। और वो भी ज्योतिष शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे। ये तीनों भाई बहुत छोटे थे जब इनके माता-पिता का देहांत हो गया था। इनके दादा पंडित घनश्याम दास जी व्यास ने इन तीनों की परवरिश की थी। 

चुरू से मिडिल क्लास पास करने के बाद आगे की पढ़ाई करने के लिए Bharat Vyas जी को कोलकाता भेज दिया गया। वहां उनके कुछ रिश्तेदार रहा करते थे। कोलकाता में अपने खर्चे उठाने की ज़िम्मेदारी Bharat Vyas जी को ही दी गई थी। इसलिए कॉलेज से आने के बाद दोपहर को वो बच्चों को ट्यूशन दिया करते थे। फिर शाम को थिएटर देखने जाते थे। और रात के समय एक कंपनी में चौकीदारी करते थे। 

जिस कंपनी के लिए भरत व्यास जी रात चौकीदारी करते थे वो एकदम सूनसान जगह पर थी। रात में वहां कोई नहीं होता था। और रोशनी का भी कोई इंतज़ाम वहां नहीं था। मतलब घनघोर अंधेरे में रहकर भरत जी को वहां चौकीदारी करनी पड़ती थी। 

उस अंधेरे में भरत जी को बहुत डर भी लगता था। तरह-तरह के विचार उनके मन में आते थे। एक दिन भरत जी ने अपनी उन भावनाओं को कागज़ पर उतारा और लिखा,"निर्बल से लड़ाई बलवान की। ये कहानी है दिये की और तूफान की।" भरत जी ने ये पूरा एक गीत लिखा था। 

भरत जी ने साल 1930 के आखिर में ये गीत लिखा था। फिर साल 1956 में जब महान वी.शांताराम जी ने 'तूफान और दिया' फिल्म बनाई तो उन्होंने ये गीत उस फिल्म में रखा। ये शायद पहला मौका था जब किसी गीत से फिल्म का शीर्षक लिया गया हो। 

भरत व्यास जी के भतीजे और उनके छोटे भाई व नामी अभिनेता रहे बी.एम.व्यास जी के पुत्र मनमोहन व्यास जी कहते हैं कि भरत व्यास जी जो भी गीत लिखते थे उसके पीछे कोई ना कोई घटना अवश्य होती थी। वो अपने हर अनुभव को कविताई शैली मे लिख लिया करते थे। फिर चाहे उसका इस्तेमाल सालों बाद किसी फिल्म में क्यों ना किया गया हो। 

जब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था तब भरत व्यास जी को कोलकाता छोड़कर अपने ननिहाल बीकानेर आना पड़ा। उनके बड़े भाई तब बीकानेर में ही थे। वो अपने भाई के पास ही कुछ दिन रहे थे। चूंकि कलकत्ता में रहने के दौरान ही उन्होंने तय कर लिया था कि एक दिन वो फिल्म डायरेक्टर बनेंगे तो एक दिन भरत व्यास बीकानेर से पूना आ गए और वहां शालीमार पिक्चर्स नाम की एक फिल्म कंपनी जॉइन कर ली। 

उस फिल्म कंपनी के मालिक थे W.Z.Ahmed. उन्होंने भरत व्यास जी को एक फिल्म डायरेक्ट करने का मौका भी दिया था जो राजस्थानी पृष्ठभूमि पर आधारित थी। और जिसकी शूटिंग राजस्थान में ही कहीं हो रही थी। मगर दुर्भाग्यवश तभी देश के बंटवारे का ऐलान हो गया। देश सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आ गया। और शालीमार पिक्चर्स के मालिक W.Z.Ahmed भारत छोड़कर कराची चले गए।

भरत व्यास जी को उम्मीद थी कि W.Z.Ahmed दंगो की आग बुझने के बाद भारत वापस लौट आएंगे और उनकी फिल्म दोबारा शुरू हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। W.Z.Ahmed फिर कभी भारत नहीं लौटे। वो कराची में ही बस गए। 

कई दिन तक भरत व्यास जी राजस्थान में ही रहे। और जब उन्हें यकीन हो गया कि अब उनकी फिल्म दोबारा शुरू नहीं होगी तो उन्होंने मुंबई(जो तब बॉम्बे था) जाने का फैसला किया। एक इंटरव्यू में भरत जी ने बताया था कि उन्होंने अपने घर के बर्तन बेचकर कुछ पैसे जमा किए और मुंबई के दो टिकट खरीदे। 

दो इसलिए क्योंकि तब तक भरत व्यास जी की शादी हो चुकी थी। एक दिन अपनी पत्नी को साथ लेकर भरत व्यास जी मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद भरत व्यास जी ने मलाड इलाके में एक खोली 15 रुपए महीना किराए पर ली। उनकी हालत बहुत खराब थी। कुछ पैसे बचे थे। उन पैसों से भरत जी ने अपनी कविताओं की किताबें छपवाई। मगर उन किताबों को दीमक खा गई। वो नहीं बिकी। 

हारकर भरत व्यास जी ने कवि सम्मेलनों में जाना शुरू कर दिया। कवि सम्मेलनों से इन्हें कुछ पैसे तो मिल जाते थे। लेकिन वो इतने नहीं थे कि उनसे ज़िंदगी आसान हो पाती। एक दिन एक बड़ी सी कार इनकी बिल्डिंग के नीचे आकर रुकी। 

उसका ड्राइवर इनकी खोली में आया और इनसे बोला कि हमारे सेठ शहर के बहुत बड़े करोड़पति हैं। अपने बेटे के जन्मदिन पर वो एक कवि सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। और उस कवि सम्मेलन में आपको विशेषतौर पर आमंत्रित किया गया है।

भरत व्यास जी को एक उम्मीद सी जगी। उन्होंने जल्दी से धुले हुए कपड़े पहने और उसी गाड़ी में बैठकर कवि सम्मेलन के लिए निकल गए। कवि सम्मेलन में भरत व्यास जी ने अपनी लिखी बेस्ट कविताएं सुनाई, जो लोगों को खूब पसंद भी आई। इन्हें जमकर तारीफें मिली। लोगों ने बहुत तालियां इनके लिए बजाई। फूल मालाएं इन्हें पहनाई गई। बढ़िया चाय-नाश्ता कराया गया। अच्छा पान खिलाया गया। 

उस दिन भरत व्यास जी बहुत खुश थे। उन्हें लग रहा था जैसे अब उनकी किस्मत बदलने वाली है। और शायद यहां से अच्छे पैसे उन्हें मिल जाएंगे। वो बाथरूम गए। और जैसे ही बाथरूम से वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि जिस जगह पर कवि सम्मेलन हुआ था वो तो एकदम खाली हो चुकी है। दर्शक भी जा चुके हैं। और कवि सम्मेलन में भाग लेने वाले कवि व आयोजक भी निकल चुके हैं।

भरत जी दौड़कर गेट के पास आए। इस उम्मीद में कि शायद उन्हें वापस घर छोड़ने के लिए वो गाड़ी अभी भी उनका इंतज़ार कर रही होगी। मगर वहां कोई गाड़ी भी नहीं थी। भरत जी बड़े दुखी हुए। कपड़े भले ही उन्होंने उस दिन अच्छे पहन रखे थे। मगर उनकी जेब में सिर्फ एक अठन्नी ही थी। 

उन्होंने वो अठन्नी एक तांगे वाले को दी। तांगे वाले ने उन्हें दादर छोड़ दिया। फिर दादर से मलाड अपनी खोली तक भरत व्यास जी पैदल ही आए। भरत जी जब पैदल आ रहे थे तब उनके मन में एक कविता चल रही थी। घर आकर भरत जी ने उस कविता को पूरा लिखा। 1959 में जब वी.शांताराम जी ने 'नवरंग' बनाई तो उस कविता को उन्होंने एक गीत के तौर पर नवरंग में इस्तेमाल किया। 

उस कविता के बोल थे "कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो। धंधे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो। ये शेर-शायरी कविराजा ना काम आएगी। कविता की पोथी को दीमक खा जाएगी। ये भाव-भावना शब्द योजना धरी रहेगी। प्राणों की अनुभूति गले में आ जाएगी। भाव चढ़ रहा, अनाज हो रहा महंगा दिन दिन। भूखे मरेंगे रात कटेगी तारे गिन गिन। राशन कार्ड बिना कविराजा क्या खाएंगे? पेट-पीठ दोनों मिलकर एक हो जाएंगे। इसिलिए कहता हूं बेटा ये सब छोड़ो। धंधे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो।" 'ये कविता भरत व्यास जी ने खुद गाई थी।

खैर, दादर से उस रात मलाड तक पैदल आते-आते भरत व्यास जी को उस सेठ पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। इसलिए अगले ही दिन वो सेठ की दुकान पर गए। सेठ अब तक उन्हें पहचान चुका था। भरत व्यास जी ने सेठ से धोती का एक जोड़ा देने को कहा। सेठ ने पूछा,"धोती नकद लोगे कि खाते में लिख दूं?" भरत जी ने उससे कहा कि तुम बिल तो बनाओ। 

सेठ ने पांच सौ रुपए का बिल बनाकर भरत जी को दिया। उन्होंने उस बिल के पीछे एक हज़ार रुपए लिखकर उसमें से पांच सौ रुपए माइनस कर दिए। फिर वो बिल सेठ को वापस देते हुए बोले,"हज़ार रुपए कविता पाठ के मेरे बनते हैं। धोती के पांच सौ रुपए काटकर बाकि पांच सौ मुझे दे दो।" 

सेठ ने पूछा कि क्या कविता पाठ के भी रुपए होते हैं? भरत जी को गुस्सा आ गया। वो सेठ से बोले,"तुम्हारा धंधा धोती बेचना है। मेरा धंधा कविता बेचना है।" फिर भरत जी ने धोतियों का वो जोड़ा सेठ के मुंह पर मारा और घर लौट आए।

समय गुज़रा और भरत जी अपनी कविताई से मशहूर होने लगे। फिल्म इंडस्ट्री तक उनके चर्चे पहुंचे। और आखिरकार साल 1943 में आई 'दुहाई' नाम की फिल्म के लिए भरत जी को पहली दफा गीत लिखने का मौका मिला। और फिर तो भरत जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 

उन्होंने एक से बढ़कर एक गीत फिल्मों के लिए लिखे। कुछ फिल्मों में गायकी भी की। हर बड़े व स्थापित संगीतकार के लिए भरत व्यास जी ने गीत लिखे। और देखते ही देखते भरत व्यास जी फिल्म इंडस्ट्री के शीर्ष गीतकारों की कतार में शुमार हो गए। 

अब ज़िक्र करते हैं भरत व्यास जी के लिखे उस गीत के बारे में जिसके बारे में अधिकतर लोगों को काफी गलतफहमी है। साल 1956-57 की बात है। भरत व्यास जी के इकलौते बेटे श्यामसुंदर व्यास किसी बात से नाराज़ होकर घर छोड़कर कहीं चले गए। 

भरत जी ने बेटे को बहुत ढूंढा। मगर उसका कुछ पता ना चल सका। बेटे के वियोग में भरत जी बहुत दुखी थे। और अपने उसी दुख को एक दिन भरत जी ने शब्दों के रूप में कागज़ पर उतार दिया। भरत जी ने लिखा था,"ज़रा सामने तो आओ छलिए। छुप छुप छलने में क्या राज़ है। यूं छुप ना सकेगा परमात्मा। मेरी आत्मा की ये आवाज़ है।"

उसी दौरान मनमोहन देसाई के बड़े भाई सुभाष देसाई भरत जी से मिलने उनके घर पर आए। वो उन दिनों 'जनम जनम के फेरे' नाम से एक फिल्म बना रहे थे। सुभाष देसाई ने भरत जी से इस फिल्म के लिए गीत लिखने को कहा। 

पर चूंकि उन दिनों भरत जी बेटे के ग़म में बहुत दुखी थे तो वो मानसिक तौर पर कुछ भी लिख पाने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने इन्कार कर दिया। उन्होंने कह दिया कि फिलहाल कुछ भी लिख पाना मेरे लिए संभव नहीं है। मगर सुभाष देसाई फिल्म की शूटिंग शुरू कर चुके थे। और उन्हें एक गीत तो किसी भी सूरत में चाहिए था। 

सुभाष देसाई के बहुत कहने पर भरत व्यास जी ने वही पर्चा उन्हें पकड़ा दिया जिस पर उन्होंने अपने बेटे के दुख में वो कविता लिखी थी जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है। "ज़रा सामने तो आओ छलिए। छुप छुप छलने में क्या राज़ है। यूं छुप ना सकेगा परमात्मा। मेरी आत्मा की ये आवाज़ है।"

उस गीत को पढ़कर सुभाष देसाई ने भरत जी से कहा कि पंडित जी, ये गीत तो नहीं चलेगा। ये तो पिता-पुत्र के रिश्ते पर आधारित गीत है। और हमें तो फिल्म के हीरो-हीरोइन के लिए गीत चाहिए। भरत जी ने सुभाष देसाई से वो पर्चा लिया और उसे फाड़कर फेंक दिया। 

सुभाष देसाई ने उन टुकड़ों को उठाया और अपने साथ लेकर चले गए। फिर उन्हें जोड़कर सुभाष देसाई ने अपनी फिल्म 'जनम जनम के फेरे' में उस गीत को इस्तेमाल भी किया। वो फिल्म साल 1957 में रिलीज़ हुई थी। भरत व्यास जी का लिखा वो गीत निरूपा रॉय व मनहर देसाई पर फिल्माया गया। और वो गीत सुपरहिट हुआ। उस साल बिनाका गीतमाला में वो गीत शीर्ष स्थान पर रहा था। 

यहां ये बताना भी ज़रूरी है कि सुभाष देसाई जी ने भी गीत के शब्दों में कोई बदलाव नहीं किया था। जैसा भरत व्यास जी ने वो गीत लिखा था उसे एकदम वैसा ही फिल्म "जनम जनम के फेरे" में इस्तेमाल किया गया। भरत जी ने गीत में पिता-पुत्र के संबंधों पर जो लाइनें लिखी थी वो भी गीत में एज़ इट इज़ रखी गई। वो पक्तियां थी,"हम तुम्हें चाहें तुम नहीं चाहो ऐसा कभी हो नहीं सकता। पिता अपने बालक से बिछड़ के सुख से कभी ना सो सकता।" 

लगभग एक महीने बाद भरत व्यास जी को पता चला कि उनका बेटा श्यामसुंदर कोलकाता में अपनी मौसी के घर पर रह रहा है। भरत जी व उनकी पत्नी दोनों बेटे को मनाकर कोलकाता से मुंबई वापस लाए। बेटा वापस आया तो भरत जी की कलम फिर से चलने लगी। और फिर तो उन्होंने सुभाष देसाई की फिल्म "जनम जनम के फेरे" के अन्य गीत भी लिख दिए। 

तो इस कहानी से हमें पता चलता कि बेटे श्यामसुंदर के घर छोड़कर जाने के दुख में भरत व्यास जी ने फिल्म "जनम जनम के फेरे" का वो सुपरहिट गीत लिखा था। मगर अधिकतर लोगों का मानना है कि बेटे के दुख में भरत जी ने रानी रूपमती फिल्म का एक मशहूर और सुपरहिट गीत लिखा था। 

वही गीत जिसकी कुछ लाइनें इस लेख की शुरुआत में लिखी गई हैं। जबकी ऐसा है नहीं। हां, ये ज़रूर है कि रानी रूपमती फिल्म के उस गीत की भी एक कहानी है। और वो कहानी भी बहुत रोचक है। चलिए, वो कहानी भी जान लेते हैं।

रानी रूपमती फिल्म का गीत "आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं" वास्तव में एक ईगो क्लैश यानि अहं के टकराव की उपज है। रानी रूपमती फिल्म के संगीतकार थे एस.एन.त्रिपाठी जी। त्रिपाठी जी व भरत व्यास जी बहुत अच्छे मित्र थे। 

मगर एक दिन किसी वजह से दोनों के बीच मतभेद हो गए। और वो मतभेद इतने गहरे हो गए कि दोनों की बातचीत बंद हो गई। व संपर्क तक खत्म हो गया। हालांकि दोस्ती टूटने की बेचैनी इन दोनों के मन में थी। कई दिनों बाद अचानक एक दिन आधी रात के वक्त एस.एन.त्रिपाठी जी का फोन बजा। 

वो फोन भरत व्यास जी ने किया था। भरत जी त्रिपाठी जी से बोले,"तू रूंठकर क्यों बैठा है? मैंने तेरे लिए एक गीत लिखा है।" सुबह होते ही एस.एन.त्रिपाठी भरत व्यास जी के घर आए। और गीत पर विचार-विमर्श करने के बाद उसी दिन वो गीत रिकॉर्ड कराया गया। फिल्म रिलीज़ हुई तो वो गीत सुपरहिट साबित हुआ। 

तो साथियों, सच ये है कि "आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं" भरत व्यास जी ने बेटे के वियोग में नहीं, बल्कि दोस्त के रूठने के ग़म में लिखा था। बेटे के वियोग में तो भरत व्यास जी ने "जनम जनम के फेरे" फिल्म का गीत "ज़रा सामने तो आओ छलिए। छुप छुप छलने में क्या राज़ है" लिखा था। 

05 जुलाई 1982 को भरत व्यास जी ये दुनिया छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए चले गए थे। मगर उनके लिखे गीत अमर हैं। और उन गीतों के ज़रिए भरत व्यास जी का नाम भी अमर है। 

Meerut Manthan Bharat Vyas जी को नमन करता है। जय हिंद। और आखिर में एक छोटी सी जानकारी और देना चाहूंगा। भरत जी के पुत्र श्यामसुंदर व्यास जी का निधन भी भरत जी के जाने के 7-8 साल बाद हो गया था। श्यामसुंदर व्यास जी कुछ फिल्मों में डायरेक्टर बाबूभाई मिस्त्री के असिस्टेंट रहे थे।

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