V.K. Murthy | भारत के श्रेष्ठतम Cinematographer की शानदार कहानी | Biography
V.K. Murthy बहुत युवा थे जब उन्होंने एक अखबार में मुंबई के एक संस्थान का "सिनेमा ट्रेनिंग कोर्स" का विज्ञापन देखा। फिल्मों के प्रति आकर्षण तो उनमें पहले से ही एक बेहदथा। वो शुरू से ही कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे उन्हें शोहरत मिली।
![]() |
Biography of V K Murthy - Photo: - Social Media |
और फिल्में उन्हें शोहरत हासिल करने का सबसे अच्छा ज़रिया लगती थी। उस वक्त उनकी उम्र 10 साल ही थी जब उन्होंने नोटिस किया कि लोग फिल्म स्टार्स के बारे में तो बहुत कुछ जानते हैं। लेकिन देश के नेताओं के बारे में कुछ खास नहीं जानते।
V.K. Murthy को लगा कि फिल्मों में काम करना उन्हें भी शोहरत दिला देगा। सो, उस विज्ञापन को देखकर तो V.K. Murthy ने ठान लिया कि अब तो वो फिल्म इंडस्ट्री में ही अपना भविष्य बनाएंगे। उस वक्त वी.के.मूर्ति दसवीं कक्षा में ही थे।
उन्होंने घर पर कोई झूठ बोला और पढ़ाई छोड़कर, जेब में मात्र 80 रुपए लेकर वो मैसूर से बैंगलोर आ गए। बैंगलोर में वी.के.मूर्ति "श्रीनिवासन" नाम के एक आदमी से मिले। वो आदमी कभी मैसूर में उनका पड़ोसी हुआ करता था।
श्रीनिवासन को जब पता चला कि वी.के.मूर्ति मुंबई जाकर फिल्मों का कोई कोर्स करना चाहते हैं तो उसने मूर्ति जी को कुछ पैसे और दिए। व उनकी हौंसलाअफज़ाई की। मुंबई आने के बाद कुछ दिनों तक वी.के.मूर्ति अपने एक रिश्तेदार के घर रहे।
जिस संस्थान में दाखिले के इरादे से वो मैसूर से मुंबई आए थे दुर्भाग्यवश वहां उन्हें दाखिला मिल ना सका। सो उन्होंने फैसला किया कि वो स्टूडियो दर स्टूडियो जाकर काम हासिल करने का प्रयास करेंगे।
उन्होंने कोशिश भी की। लेकिन किसी भी स्टूडियो में उन्हें गेट के भीतर तक घुसने नहीं दिया जाता था। चौकीदार गेट से ही उन्हें भगा देता था।
मुंबई में अपने जिस रिश्तेदार के घर V.K. Murthy जी ठहरे हुए थे जब उसे पता चला कि मूर्ति फिल्मों में काम करने के अपने फैसले पर अटल है तो एक दिन वो खुद V.K. Murthy को अपने साथ लेकर पुणे के सरस्वती सिनेटोन स्टूडियो गए। उनकी सिफ़ारिश पर मूर्ति जी को वहां कैमरामैन के असिस्टेंट के तौर पर नौकरी तो मिल गई।
लेकिन कैमरामैन उन्हें कैमरे के आस-पास भी नहीं फटकने देता था। उन्हें हमेशा दूर खड़े रहने को कहता था। मूर्ति जी को अहसास हुआ कि वहां उन्हें कुछ भी सीखने को नहीं मिलने वाला। इसलिए वो वापस मैसूर लौट गए।
मैसूर लौटकर उन्होंने फिर से दसवीं कक्षा में दाखिला लिया और पास भी हुए। मूर्ति जी लगभग मान ही चुके थे कि वो कभी भी फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं बन सकेंगे। लेकिन फिर एक दिन उन्हें खबर मिली की बैंगलोर का "एसजेपी कॉलेज" सिनेमा रिलेटेड कोई कोर्स शुरू कर रहा है।
मूर्ति जी ने तय किया कि अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए वो एक प्रयास अवश्य करेंगे। उस कोर्स में दाखिले के लिए कई सारे आवेदन आए। इसलिए शुरुआत में मूर्ति जी को दाखिला देने से इन्कार कर दिया गया।
लेकिन जब उन्होंने प्रिंसिपल को बताया कि वो पुणे में कुछ समय के लिए असिस्टेंट कैमराैन के तौर पर काम कर चुके हैं, यानि उनके पास थोड़ा तजुर्बा भी है तो उन्हें दाखिला मिल गया। लेकिन चुनौती अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई थी।
वी.के.मूर्ति जी ने सोचा था कि चूंकि कॉलेज ने स्कॉलरशिप देने का वादा किया था तो कोर्स करने में फाइनसेंशियल दिक्कत तो होगी ही नहीं। लेकिन अब स्कॉलरशिप खत्म कर दी गई थी। यानि मूर्ति जी को कोर्स की फीस चुकानी थी।
उस ज़माने में साठ रुपए उस कोर्स की फीस थी। मूर्ति फटाफट जाकर मैसूर के अपने पड़ोसी श्रीनावसन से मिले और गुज़ारिश की कि उन्हें कोई पार्ट टाइम जॉब दिलाने में श्रीनावसन मदद करें। ताकि वो अपने कोर्स की फीस कॉलेज को चुका सकें।
मूर्ति जी उस वक्त मन ही मन बहुत परेशान थे। उन्हें लग रहा था जैसे कि वो अपने ख्वाब के काफ़ी नज़दकी पहुंचकर भी दूर ही खड़े हैं। उस वक्त उनकी आंखों में आंसू आ गए। वो रो पड़े।
उस दिन पहली दफा मूर्ति जी रोए थे। उनकी आंखों से तो तब भी आंसू की एक बूंद तक नहीं गिरी थी जब उनके पिता की मृत्यु हुई थी। मूर्ति जी को रोते देख श्रीनावसन ने उन्हें शांत किया। और फीस के साठ रुपए अपनी जेब से दिए।
मूर्ति जी ने दाखिला ले लिया। मैसूर के ही उनके एक दोस्त ने उन्हें अपने साथ रहने की जगह भी दे दी। लेकिन खाने का इंतज़ाम करने की चुनौती अभी भी बाकि थी। उनका वो दोस्त उन्हें अपने साथ कॉलेज के हॉस्टल में ले गया।
उस दिन वहां गणेश सेलिब्रेशन था। दोस्त जानता था कि मूर्ति अच्छा वॉयलेन बजा लेता है। उसने मूर्ति से उस गणेशोत्सव में वॉयलन बजाने को कहा। मूर्ति जी ने वॉयलन बजाया भी।
और इतना अच्छा वॉयलन उस दिन मूर्ति जी ने बजाया कि हॉस्टल अथॉरिटी के लोग उनसे बहुत प्रभावित हुए। अथॉरिटी की तरफ से ऐलान किया गया इस लड़के को रोज़ कॉलेज की कैंटीन में दोपहर का खाना मुफ़्त खिलाया जाएगा।
वॉयलन बजाने के अपने हुनर की वजह से ही मूर्ति जी को प्रख्यात भरतनाट्यम नर्तक रामगोपाल की संगीत टीम में भी जगह मिल गई। उन्हें ढाई सौ रुपए महीना तनख्वाह ऑफर की गई थी।
मूर्ति जी ने वो नौकरी पकड़ भी ली थी। छह महीने तक वो उनके साथ रहे। ये और बात है कि उन्हें एक पैसा भी नहीं मिला। क्यों नहीं मिला? इसका ज़िक्र मूर्ति जी ने कभी नहीं किया। लेकिन उनके साथ रहकर मूर्ति जी का एक बड़ा फायदा ज़रूर हो गया।
रामगोपाल जी के भरतनाट्यम ग्रुप से जुड़कर एक दिन मोहन सहगल नाम के एक नर्तक से वी.के.मूर्ति जी की जान-पहचान हो गई। ध्यान रहे कि ये मोहन सहगल वो नहीं है जो फिल्म इंडस्ट्री के एक समय के नामी फिल्मकार रहे हैं।
ये मोहन सहगल उनसे अलग हैं। जिस मोहन सहगल से मूर्ति जी की जान-पहचान हुई थी उसकी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोगों से अच्छी यारी थी। उसके ज़रिए मूर्ति जी को मुंबई बनी एक फिल्म के एक गीत में वॉयलेन बजाने का मौका मिल गया।
इस तरह फिल्मों से वी.के.मूर्ति जी का पहला वास्ता संगीत के ज़रिए हुआ था। अपने संगीत के ज़रिए ही वो अपने कॉलेज में भी बहुत मशहूर हो गए थे। फर्स्ट ईयर में अपने संगीत की वजह से ही मूर्ति जी पास हुए थे।
दरअसल, सिनेमैटोग्राफी के पेपर में कुछ मैथेमैटिकल्स कॉन्सैप्ट्स भी थे। और मैथ्स मूर्ति जी के बूते के बाहर की चीज़ थी। इसलिए एग्ज़ाम से ठीक एक दिन पहले मूर्ति जी सिनेमैटोग्राफी के टीचर से मिले और उससे क्वेश्चन पेपर ही मांग लिया।
टीचर भी मूर्ति जी के संगीत का फैन था। उसने एक कागज़ पर मूर्ति जी को एग्ज़ाम में आने वाले सवाल लिखकर दे दिए। मूर्ति जी उन्हें लेकर अपने रूममेट के पास गए और उसकी मदद से उन्होंने सभी सवालों के जवाब अच्छी तरह से याद कर लिए।
और अगले दिन एग्ज़ाम में लिखकर भी आ गए। इस तरह वी.के.मूर्ति जी फर्स्ट ईयर में पास हुए थे। सेकेंड ईयर में इन्हें किसी फिल्म स्टूडियो में इंटर्नशिप करनी थी।
उस ज़माने में इनके सबसे नज़दीक दो ही शहर थे जहां फिल्म स्टूडियो हुआ करते थे। एक था चेन्नई और दूसरा था मुंबई। वी.के.मूर्ति जी ने मुंबई को चुना। क्योंकि मुंबई में इनके रिश्तेदार भी थे जिनके यहां ये ठहर सकते थे।
पहली दफ़ा जब मूर्ति जी मुंबई आए थे तब उसी रिश्तेदार के यहां ही ठहरे थे। ऊपर कहीं आपने वो किस्सा पढ़ा ही होगा कि कैसे अपने उस रिश्तेदार की मदद से पुणे के एक फिल्म स्टूडियो में मूर्ति जी को असिस्टेंट कैमरामैन की नौकरी मिली थी।
मुंबई जाकर मूर्ति जी ने एक फिल्म स्टूडियो में इंटर्नशिप की बात की। उन्होंने अपने बारे में जब विस्तार से स्टूडियो वालों को बताया तो वो मूर्ति जी से बहुत प्रभावित हुए।
उन्हें जब पता चला कि मूर्ति वॉयलेन बहुत अच्छा बजाते हैं और एक फिल्म के गाने के लिए भी बजा चुके हैं तो उन्होंने फौरन मूर्ति जी से स्टूडियो जॉइन करने को कहा।
हालांकि तब तक इनके कुछ एग्ज़ाम्स भी होने थे तो उन्होंने स्टूडियों वालों से थोड़ा समय मांगा। वी.के.मूर्ति वैसे भी सिर्फ बात करने के इरादे से ही आए थे।
एग्ज़ाम्स के बाद वी.के.मूर्ति जी ने वो स्टूडियो जॉइन कर लिया। वो चौथे असिस्टेंट के तौर पर जुड़े थे। लेकिन दो ही महीनों में अपनी मेहनत के दम पर वी.के.मूर्ति वहां पहले असिस्टेंट बन गए।
पहला प्रोजेक्ट जिससे वी.के.मूर्ति जुड़े थे वो महारानाप्रताप नामक एक फिल्म थी। इसी बीच उन्हें आम्रपाली फिल्म देखने का मौका मिला।
आम्रपाली के सिनेमैटोग्राफर फ़ली मिस्त्री थे। उनका काम मूर्ति जी को इतना पसंद आया कि वो फ़ली मिस्त्री का असिस्टेंट बनने का ख्वाब देखने लगे।
ईश्वर ने भी उनका वो ख्वाब जल्द ही पूरा किया। एक दिन मूर्ति जी को पता चला कि फ़ली मिस्त्री को एक असिस्टेंट की ज़रूरत है। उन्होंने खुद मूर्ति जी के पास अपने एक आदमी को भेजा और उन्हें अपना असिस्टेंट बनने का प्रस्ताव दिया।
जिस दिन मूर्ति जी ने फ़ली मिस्त्री के साथ काम शुरू किया था वो रविवार का दिन था। छुट्टी का दिन था। इसलिए उस दिन मिस्त्री जी के अन्य असिस्टेंट्स छुट्टी पर थे। लेकिन वी.के.मूर्ति जी ने उस दिन सुबह से लेकर देर शाम तक फ़ली मिस्त्री के साथ काम किया।
फ़ली मिस्त्री वी.के.मूर्ति की लगन और मेहनत से बहुत प्रभावित हुए। शाम को काम खत्म होने के बाद मिस्त्री जी ने मूर्ति जी से कहा कि तुम मेरे अब तक के 24वें असिस्टेंट हो। लेकिन सबसे बेस्ट हो।
फ़ली मिस्त्री जी के साथ वी.के.मूर्ति जी ने कोई चार सालों तक काम किया था। उनके साथ काम करने दौरान ही वी.के.मूर्ति की मुलाकात गुरूदत्त से हुई थी।
उस वक्त गुरूदत्त अपनी डायरेक्टोरियल डेब्यू बाज़ी पर काम कर रहे थे। देवानंद उसमें हीरो थे। देवानंद ही प्रोड्यूसर भी थे।
एक दिन किसी पर्टिकुलर शॉट के लिए वी.के.मूर्ति ने गुरूदत्त को कोई आईडिया दिया। वो आईडिया गुरूदत्त को बहुत पसंद आया। उन्होंने जब उस आईडिया के हिसाब से शॉट लिया तो शॉट बहुत खूबसूरती से निकलकर आया।
वी.के.मूर्ति जी की टैक्निल नॉलेज और उनकी क्रिएटिविटी से गुरूदत्त बहुत इंप्रैस हुए। उन्होंने वी.के.मूर्ति जी को अपने साथ जुड़ने का ऑफर दिया। और उस दिन बना गुरूदत्त और मूर्ति जी का वो रिश्ता गुरूदत्त साहब के ज़िंदा रहने तक कायम रहा।
गुरूदत्त साहब के साथ वी.के.मूर्ति जी ने कुछ बहुत ही यूनीक और लैंडमार्क फिल्मों की सिनेमैटोग्राफी की। साहिब बीवी और गुलाम, कागज़ के फूल, प्यासा।
इन फिल्मों को गुरूदत्त की "कल्ट फिल्में" कहा जाता है। लेकिन बिना वी.के.मूर्ति जी की शानदार सिनेमैटोग्राफी के ये फिल्में मास्टरपीस हो नहीं सकती थी।
वी.के.मूर्ति जी को गुरूदत्त जी का काम करने का स्टाइल बहुत पसंद आता था। गुरूदत्त से मूर्ति जी इतने प्रभावित थे कि उन्होंने तय कर लिया था कि वो कभी भी गुरूदत्त की टीम नहीं छोड़ेंगे।
जब गुरूदत्त दुनिया छोड़ गए तो वी.के.मूर्ति जी को भी बहुत दुख पहुंचा था। मूर्ति जी तब कशमकश में पड़ गए थे कि अब वो आगे क्या करेगे। गुरूदत्त और उनका साथ बहुत फ्रेंडली था।
गुरूदत्त मूर्ति जी के हर सुझाव को गंभीरता से लेते थे। मूर्ति भी गुरूदत्त के साथ पूरी ईमानदारी से काम करते थे। गुरूदत्त को बड़ी हैरानी हुई थी जब उन्हें ये पता चला था कि मूर्ति शराब नहीं पीते हैं।
गुरूदत्त की लगभग सभी फिल्मी पार्टियों में होस्ट की भूमिका मूर्ति जी ही निभाते थे। उन पार्टियों में शराब भी होती थी। मगर वी.के.मूर्ति कभी शराब नहीं पीते थे।
गुरूदत्त जी को याद करते हुए वी.के.मूर्ति जी ने कहा था कि गुरूदत्त एक समय में बहुत लोकप्रिय व धनवान थे। लेकिन तब भी उन्होंने समय और पैसे की कद्र करना नहीं छोड़ा था।
ना ही उनके भीतर किसी तरह का अहंकार कभी आया था। वो हमेशा धरातल पर रहने वाले इंसान की तरह रहे।
डांस डायरेक्टर के तौर पर करियर शुरू करने वाले गुरूदत्त आगे चलकर हिंदी सिनेमा के वन ऑफ दि फाइनेस्ट फिल्म डायरेक्टर बने।
बतौर डायरेक्टर मूर्ति जी को गुरूदत्त बहुत पसंद थे। मूर्ति जी ने बताया था कि गुरूदत्त बहुत ही प्रोफेशनल और क्रिएटिव डायरेक्टर थे।
ये गुरूदत्त का प्रोफेशनलिज़्म ही था जिससे प्रभावित होकर वी.के.मूर्ति जी के मन में भी शिफ्ट वाइज़ काम करने का ख्याल आया था।
दरअसल, एक्टर्स अक्सर सेट पर देर से आते थे। लेकिन मूर्ति जी हमेशा टाइम मैनेजमेंट करते थे और उसी के हिसाब से चलना चाहते थे।
इसिलिए उन्होंने आईडिया दिया कि क्यों ना काम शिफ्ट के हिसाब से किया जाए। इससे काम करने वाले लोग एक फिक्स टाइम पर आएंगे और फिक्स टाइम तक काम खत्म करके चले जाएंगे।
तभी से फिल्म इंडस्ट्री में 11 से 2 और 2 से 10 वाली शिफ्ट शुरू हुई। हालांकि मूर्ति जी ने बाद में ये सिस्टम ईजाद करने के लिए खुद को काफी कोसा भी था। क्योंकि इससे एक्टर्स को और ज़्यादा अनप्रोफेशनल तरीके से काम करने का मौका मिल गया।
एक्टर्स एक साथ दो फिल्मों में काम करने लगे। और कई दफ़ा वो फिल्मों की शूटिंग पर देर से ही पहुंचने लगते थे। शिफ्ट वाले सिस्टम से अनप्रोफेशनलिज़्म खत्म होने की जगह और ज़्यादा बढ़ गया।
मूर्ति जी को काम में पंक्चुअलिटी और रिहर्सल के साथ समझौता करना कतई पसंद नहीं था। अपनी इसी आदत के चलते एक दफा उनका जितेंद्र जी के साथ थोड़ा विवाद हो गया था। दरअसल, एक दफ़ा जितेंद्र जी ज़रा देर से आए।
उन्होंने मूर्ति जी से कहा कि रिहर्सल करने की कोई ज़रूरत नहीं है। सीधे शॉट लेते हैं। लेकिन मूर्ति जी ने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया।
पहले तो जितेंद्र जी ज़रा खफ़ा हुए। लेकिन बाद में उन्हें भी समझ में आया कि रिहर्सल कितनी ज़रूरी है। जितेंद्र ने मूर्ति जी से माफ़ी मांगी और रिहर्सल करने के बाद ही शॉट दिया।
मूर्ति जी कहते थे कि उस ज़माने में एक्टर्स कैमरामैन का बहुत सम्मान करते थे। लेकिन आज के दौर में कैमरामैन को एक्टर्स को सैल्यूट करना पड़ता है। आज हर कोई पैसे के पीछे भाग रहा है। क्वालिटी सिनेमा बनाने का पैशन और कमिटमेंट अब खत्म होता जा रहा है।
साथियों ये जितनी भी बातें आपने अभी तक इस लेख में पढ़ी हैं वो सब वी.के.मूर्ति जी ने एक इंटरव्यू में खुद बताई थी। एक और रोचक बात उस इंटरव्यू में मूर्ति जी ने ये बताई थी कि उस वक्त लगभग सभी हीरोइनें उनकी गुड बुक में रहना चाहती थी।
क्योंकि स्क्रीन पर वी.के.मूर्ति जी ही हीरोइनों को अपने कैमरे के ज़रिए अधिक से अधिक खूबसूरत दिखाते थे। हालांकि वो सिर्फ अपना प्रोफेशनलिज़्म फॉलो करते थे। इसलिए वो हीरोइनों से बहुत ज़्यादा बात नहीं करते थे।
मगर वहीदा रहमान से उनकी खूब बातें होती थी। वहीदा जी को गुरूदत्त ने वी.के.मूर्ति जी से इंट्रोड्यूज़ कराया था। वहीदा रहमान जी का बात करने का तरीका और उनके रहन-सहन का अंदाज़ वी.के.मूर्ति जी को अच्छा लगता था।
और चूंकि मूर्ति जी को भी तेलुगू भाषा अच्छी तरह से आती थी तो वहीदा रहमान जी भी उनसे खूब बातें करती थी।
वी.के.मूर्ति ने ये भी बताया था कि उनका मन कभी नहीं हुआ कि वो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को छोड़कर साउथ की तरफ शिफ्ट हों। उन्होंने अपने जीवन के कई साल हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में गुज़ारे। वैसे भी उस दौर में देश में हर तरफ़ हिंदी सिनेमा ही अधिक देखा जाता था।
मूर्ति जी ने एक दफ़ा एक कन्नड़ फिल्म की सिनेमैटोग्राफी भी की थी। कुछ लोग इनसे कहते थे कि खुद कन्नड़ होने के बावजूद मूर्ति जी ने कभी कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री में काम क्यों नहीं किया? मूर्ति जी इसका कोई जवाब नहीं देते थे।
मूर्ति जी ने उस इंटरव्यू में ये भी कहा था कि उस ज़माने में हिदी फिल्मों में बेस्ट डायरेक्टर्स हुआ करते थे। इसलिए उन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में काम करना पसंद आता था।
हां, हीरोइनों के लिए तमिल इंडस्ट्री बेस्ट थी तब। क्योंकि तमिल प्रोड्यूसर्स हीरोइनों को बहुत अच्छी फीस देते थे। इसलिए हीरोइनें तमिल फिल्मों में काम करने के लिए हमेशा तैयार रहती थी।
बकौल वी.के.मूर्ति, गुरूदत्त की मृत्यु के बाद उनके लिए मुश्किल हो गया ऐसा डायरेक्टर ढूंढना जिसमें गुरूदत्त जैसा कैलिबर हो। गुरूदत्त के बाद मूर्ति जी ने गोविंद निहलानी, श्याम बेनेगल और प्रमोद चक्रवर्ती के साथ काम किया था।
तभी देश में टीवी कल्चर शुरू हो गया। मूर्ति जी को लगा कि इस मीडियम के आने के बाद लोगों को कैमरामैन के काम कभी याद रह ही नहीं सकेगा।
जबकी आज भी देश में जब गुरूदत्त की फिल्मों का ज़िक्र होता है तो उनका यानि वी.के.मूर्ति जी के नाम का ज़िक्र भी ज़रूर होता है।
1992 में आई दीदार वी.के.मूर्ति जी की आखिरी हिंदी फिल्म थी। उसके बाद मूर्ति जी ने "हूवू हन्नू" नामक कन्नड़ फिल्म की सिनेमैटोग्राफी की थी। ये वही फिल्म थी जो मूर्ति जी के करियर की इकलौती कन्नड़ फिल्म थी। इसके बाद मूर्ति जी की पत्नी का देहांत हो गया।
पत्नी की मृत्यु के बाद मूर्ति जी ने फिल्मों से रिटायरमेंट ले लिया। क्योंकि उनकी अपाहिज बेटी की देखभाल करने वाला कोई और नहीं बचा था।
जब तक मूर्ति जी की पत्नी राजम ज़िंदा थी, बेटी छाया का ख्याल वही रखती थी। यूं तो मूर्ति जी के दो बेटे, जयकर और चंद्रा भी थे। लेकिन बेटी की ज़िम्मेदारी मूर्ति जी खुद उठाना चाहते थे।
जीवन के आखिरी सालों में वी.के.मूर्ति मुंबई छोड़कर बैंगलोर आ गए थे। वो अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट थे। बैंगलोर में वो कभी-कभार सिनेमैटोग्राफी वर्कशॉप्स ज़रूर आयोजित कर लेते थे।
लेकिन फिल्मों से उन्होंने खुद को पूरी तरह से दूर कर लिया था। साल 2008 में वी.के.मूर्ति जी को भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित "दादा साहेब फाल्के" पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
07 अप्रैल 2014 को 91 साल की उम्र में वी.के.मूर्ति जी का देहांत हो गया था। जबकी उनका जन्म हुआ था 26 नवंबर 1923 को मैसूर में।
वी.के.मूर्ति जी को मेरठ मंथन का नमन। शत शत नमन। अपने हुनर से उन्होंने जो क्लासिक शॉट्स फिल्माए उनके लिए मूर्ति जी को बिग सैल्यूट।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें