Gulzar | एक मोटर मैकेनिक के महान शायर बनने की शानदार कहानी | Biography

Gulzar. वो शख्स जो पिछले कई सालों से अपनी कलम से कागज़ पर अपने जज़्बातों को कुछ इस अंदाज़ में उकेर रहा है, मानो शब्दों का एक संसार गढ़ रहा हो। कई दशकों से हम और आप गुलज़ार की शायरियों को किसी ना किसी मौके पर सुनते ही हैं। अहसासों को आवाज़ देती कविताएं हों या बालमन की ख्वाहिशों को शब्द देते चुटीले गीत हों। गुलज़ार के ढेरों रूप हमें देखने को मिलते हैं। 

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Gulzar - Photo: Social Media

Meerut Manthan भी आज Gulzar की कहानी से, या यूं कहिए कि Gulzar की शख्सियत से अपने दर्शकों को रूबरू कराना चाहता है। गुलज़ार की ज़िंदगी में झांकने का ये खूबसूरत मौका किस्मत वाले लोगों को ही नसीब होता है।

Gulzar का शुरुआती जीवन

18 अगस्त 1934 को गुलज़ार का जन्म पंजाब के दीना में हुआ था। अब ये इलाका पाकिस्तान में है। माता-पिता ने इन्हें नाम दिया था सम्पूर्ण सिंह कालरा। इनके पिता का नाम था माखन सिंह कालरा। जबकी इनकी मां का नाम था सुजान कौर। छोटी उम्र से ही संम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ गुलज़ार को किताबें पढ़ने का बड़ा शौक था।

ये उन दिनों स्कूल में ही थे जब भारत का बंटवारा हुआ और देश बेहद खतरनाक सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गया। किसी तरह गुलज़ार के पिता अपने परिवार को लेकर दिल्ली आ गए। 

जिस वक्त देश का बंटवारा हुआ था उस वक्त इनके बड़े भाई बॉम्बे में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। पिता ने इन्हें भी पढ़ने के लिए भाई के पास बॉम्बे भेज दिया। इन्होेंने खालसा कॉलेज में दाखिला ले लिया। 

मोटर गैराज में काम करते थे गुलज़ार

बंटवारे के बाद परिवार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी आर्थिक स्थिति को फिर से मजबूत करना। गुलज़ार और उनके भाई पढ़ाई छोड़कर बॉम्बे में छोटे-मोटे काम करने लगे। गुलज़ार भी एक मोटर गैराज में काम लग गए। 

एक्सीडेंटल कारों को ठीक करके उन पर रंग करना इनका काम था। गुलज़ार को अपनी ये नौकरी पसंद आने लगी। और ऐसा इसलिए था क्योंकि इस नौकरी में इन्हें इतना वक्त मिल जाता था कि ये ढेर सारी किताबें पढ़ लिया करते थे। 

एक किताब ने बदल दी Gulzar की ज़िंदगी

उस इलाके में एक ऐसी लाइब्रेरी थी जिसमें चार आने हफ्ते के बदले अनलिमिटेड किताबें पढ़ने की छूट थी। चूंकि गुलज़ार साहब को पढ़ने का बहुत शौक था तो इन्होंने उस लाइब्रेरी में रखी लगभग हर किताब पढ़ डाली। 

गुलज़ार साहब की इस आदत से लाइब्रेरी वाला भी आजिज़ आ गया।एक दिन जब गुलज़ार साहब उसके पास पढ़ने के लिए किताब लेने गए तो उसने इन्हें एक मोटी सी किताब थमाते हुए कहा कि अब बस। अब और किताबें नहीं हैं यहां। ये पढ़ो और फिर वापस इधर मत आना। 

उस लाइब्रेरी वाले को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि अपनी फ्रस्ट्रेशन में जिस किताब को वो गुलज़ार को दे रहा है। वही किताब अब इनकी ज़िंदगी पूरी तरह से बदलने वाली है।

लाइब्रेरी वाले ने उस दिन जो किताब गुलज़ार को दी थी उसका नाम था द गार्डनर। ये एक कविता संग्रह था जिसे महान गुरू रबिन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था। टैगोर की वो किताब पढ़ने के बाद किताबें पढ़ने का गुलज़ार का नज़रिया पूरी तरह से बदल गया। 

कविताओं से लगाव और परिवार का ऐतराज़

इस किताब को पढ़ने के बाद रबिन्द्रनाथ टैगोर को इन्होंने और ज़्यादा पढ़ा। बंगाली भाषा से इन्हें प्यार हो गया। टैगोर के अलावा गुलज़ार ने कई दूसरे कवियों और शायरों को पढ़ना भी शुरू कर दिया। उस ज़माने में बॉम्बे में होने वाले मुशायरों और कविता कार्यक्रम सुनने भी ये खूब जाते थे। इनके परिवार को जब पता चला कि ये लेखक बनने का ख्वाब देख रहे हैं तो उन्होंने इस पर ऐतराज़ जताया। 

और समपूरण सिंह कालरा बन गए Gulzar

गुलज़ार ने परिवार के लोगों से ज़्यादा बहस तो नहीं की। लेकिन मन ही मन वो ठान चुके थे कि अब तो उन्हें लेखनी ही करनी है। घरवाले इस बारे में ज़्यादा बहस ना करें इसलिए इन्होंने जब लिखना शुरू किया तो बतौर लेखक अपना नाम ये लिखते थे गुलज़ार दीनवी। और इस तरह आगे चलकर सम्पुर्ण सिंह कालरा बन गए गुलज़ार।

बाद में पूरी की पढ़ाई

चूंकि ज़िंदगी चलाने के लिए इन्हें बहुत जल्दी नौकरी करनी पड़ी थी तो मजबूरन इन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ गई थी। लेकिन जब इन्होंने देखा कि इनके बाकी भाई पढ़-लिख रहे हैं तो इन्हें बड़ा दुख हुआ। ये सोचते थे कि मैं इतनी किताबें पढ़ता हूं। लिखता भी काफी हूं। 

लेकिन फिर भी एकेडेमिक्स में मेरे पास कुछ नहीं है। काफी कोशिशों के बाद आखिरकार इन्हें एक कॉलेज में दाखिला मिल गया और इन्होंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया।पढ़ाई के साथ ही ये गैराज वाला अपना काम भी कर रहे थे और लिखने का अपना शौक भी पूरा करते रहते थे। उस ज़माने में ये बेसब्री से रविवार का इंतज़ार किया करते थे। 

दरअसल, रविवार के दिन ही राइटर्स असोसिएशन की मीटिंग हुआ करती थी और ये उस मीटिंग में हिस्सा लेने हर हाल में जाते थे। इस तरह की मीटिंग्स में आने का केवल एक ही मकसद था। अपने आपको इतना तराश लेना कि अपनी चमक से हर किसी की आंखों में रोशनी भर दें।

ऐसे गीतकार बने गुलज़ार

राइटर्स असोसिएशन की मीटिंग्स में जाने का सबसे बड़ा फायदा इन्हें ये हुआ था कि सलिल चौधरी और शैलेंद्र जैसे फिल्म इंडस्ट्री के उस ज़माने के नामी लोगों संग इनका उठना-बैठना होने लगा। और इसी संगत के चलते ही इन्हें बतौर गीतकार इनका पहला गीत भी मिला था। हालांकि इन्हें वो गीत मिलने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है।

ये साल 1963 की बात है। बिमल रॉय अपनी फिल्म बंदिनी की मेकिंग में की तैयारियों में लगे थे। फिल्म का संगीत एसडी बर्मन दे रहे थे। और गीत लिख रहे थे शैलेंद्र। लेकिन इसी दौरान शैलेंद्र और एसडी बर्मन के बीच कुछ मनमुटाव हुआ और शैलेंद्र ने बंदिनी फिल्म छोड़ दी। ये बात जब फैली तो गुलज़ार के एक दोस्त इन्हें बिमल रॉय के पास ले गए।

बिमल रॉय को लगा कि ये पंजाबी लड़का भला कैसे वैष्णव कविता लिख पाएगा। लेकिन गुलज़ार के दोस्त ने बिमल दा को बताया कि ये लड़का बंगाली का अच्छा जानकार है और बंगाली बोलता और पढ़ता भी है। तब बिमल दा ने गुलज़ार को सचिन दा यानि एस डी बर्मन के पास भेज दिया। 

एस डी बर्मन के साथ इनकी ट्यूनिंग बढ़िया जम गई और फिर इन्होंने लिखा बंदिनी फिल्म के लिए ही अपना पहला गीत जो आज भी लोग सुनते हैं और गुनगुनाते हैं। उस गीत के बोल थे, "मेरा गोरा रंग लेले, मोहे श्याम रंग देदे।"

जब Bimal Roy ने Gulzar को बनाया अपना असिस्टेंट

बिमल दा को गुलज़ार बहुत भा गए थे। बिमल दा जानते थे कि गुलज़ार फिल्मों के लिए नहीं लिखना चाहते थे। वो तो केवल साहित्य और कविताएं ही लिखना चाहते हैं। एक दिन बिमल दा ने इनसे कहा कि मैं एक और फिल्म बना रहा हूं। तुम उसमें मेरे असिस्टेंट बन जाओ। 

इस तरह तुम फिल्मों का डायरेक्शन सीख लोगे। ये एक बढ़िया आर्ट है। मैं बस ये चाहता हूं कि तुम वापस उस गैराज में काम करने ना जाओ। बिमल दा ने गुलज़ार से ये बातें इतने अपनेपन से कही थी कि इनकी आंखों में आंसू आ गए। ये बिमल दा के असिस्टेंट बन ही गए। 

सम्पूर्ण लेखक बन गए सम्पूरण सिंह कालरा

बिमल दा की अगली फिल्म काबुलीवाला में ये असिस्टेंट डायरेक्टर तो थे ही। साथ ही इन्होंने इस फिल्म का टाइटल सॉन्ग काबुलीवाला भी लिखा था। इसके बाद भी कई फिल्मों में गुलज़ार ने बिमल दा के साथ काम किया। अब तक ये फिल्मों के गाने ही नहीं, स्क्रिप्ट भी लिखने लगे थे। आगे चलकर इन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी संग भी गीत लेखन और स्क्रिप्ट लेखन करना शुरू कर दिया।

फिल्मोें के लिए गीत और स्क्रिप्ट लिखते-लिखते गुलज़ार साहब कब डायलॉग्स भी लिखने लगे उन्हें खुद पता नहीं चला। लेकिन जब आनंद फिल्म में इनके लिखे डायलॉग्स और गीतों ने धूम मचा दी तो गुलज़ार साहब को लगा कि अब जाकर वो फिल्मों में एज़ एन राइटर इस्टैब्लिश हुए हैं।

जब डायरेक्शन में रखा कदम

बिमल दा के साथ गुलज़ार साहब ने लंबे वक्त तक असिस्टेंट डायरेक्टर की हैसियत से काम किया था। अब वक्त था उनके खुद के एक डायरेक्टर बनने का। साल 1971 में इन्होंने पहली दफा फिल्म "मेरे अपने" डायरेक्ट की। 

इस फिल्म की बड़ी चर्चा हुई थी। इसके बाद गुलज़ार ने डायरेक्ट की 'परिचय' और 'कोशिश'। ये दोनों ही फिल्में खूब सराही गई। कोशिश के लिए तो हरी भाई संजीव कुमार को नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला था। 

और नामी डायरेक्टर बन गए Gulzar

गुलज़ार ने 'अचानक' और 'आंधी' जैसी दमदार फिल्मों का डायरेक्शन भी किया था। वहीं गुलज़ार की ही 'अंगूर' को भला कौन भुला सकता है। जबकी 'माचिस' में इन्होंने एक बेहद सेंसिटिव मुद्दे को उठाकर हर किसी को चौंका दिया था। 

एज़ ए डायरेक्टर गुलज़ार की आखिरी फिल्म थी 'हु तू तू' जिसमें सुनील शेट्टी, तब्बू और नाना पाटेकर अहम भूमिकाओं में थे। दूरदर्शन के लिए इन्होंने 'मिर्ज़ा ग़ालिब' और 'तहरीर मुंशी प्रेमचंद की' जैसे चर्चित शोज़ भी डायरेक्ट किए। 

जब Rakhee पर आया Gulzar का दिल

जैसा कि हमने आपको बताया था, गुलज़ार साहब को बंगाली साहित्य, बंगाली भाषा और बंगाली संस्कृति से बेहद लगाव था। उन्होंने खुद भी बांग्ला भाषा सीखी थी। गुलज़ार साहब का दिल भी एक बंगाली लड़की पर ही आया था। 

ये थी एक्ट्रेस राखी। राखी एक बार शादी कर चुकी थी और तलाक लेकर पहले पति से अलग भी हो चुकी थी। साल 1972 में पहली दफा राखी और गुलज़ार की मुलाकात हुई थी। मुलाकात दोस्ती में बदली और फिर प्यार भी हो गया। साल 1973 में राखी और गुलज़ार ने शादी कर ली। 

दिलीप कुमार, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन समेत, फिल्म इंडस्ट्री की हर बड़ी हस्ती ने इन दोनों की शादी में शिरकत की थी। 1973 के दिसंबर में ही राखी और गुलज़ार एक बेटी के माता-पिता बन गए जिसका नाम रखा गया बोस्की।

टूट गई रिश्ते की डोर

बेटी के जन्म के बाद ही गुलज़ार और राखी के बीच दूरियां आनी शुरू हो गई। आखिरकार दोनों ने अलग होने का फैसला कर लिया। हालांकि गुलज़ार और राखी ने कभी तलाक नहीं लिया। बेटी बोस्की उर्फ मेघना की कस्टडी दोनों की सहमति से गुलज़ार साहब के पास रही। 

गुलज़ार ने ही मेघना की परवरिश की। पिता गुलज़ार के नक्शे कदम पर चलते हुए मेघना गुलज़ार भी फिल्म डायरेक्टर बन गई। मेघना ने राज़ी, फिलहाल, तलवार, दस कहानियां और जस्ट मैरिड जैसी नॉटेबल फिल्मों का डायरेक्शन किया है।

हर जोनरा में छाए गुलज़ार

गुलज़ार ने लगभग हर जोनरा की फिल्मों के लिए काम किया। मगर उनकी एक ख्वाहिश पूरी नहीं हो पा रही थी। वो चाहते थे कि वो बच्चों के लिए भी कोई फिल्म बनाएं। इनकी ये ख्वाहिश पूरी हुई साल 1977 में। 

जब इन्होंने समरेश बसु के उपन्यास 'पाथिक' पर बेस्ड एक फिल्म बनाई जिसका नाम था 'किताब'। इस फिल्म का डायरेक्शन भी गुलज़ार ने खुद ही किया था।

वहीं नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर आने वाली कार्टून सीरीज़ 'द जंगल बुक' का टाइटल ट्रैक 'जंगल जंगल बात चली है पता चला है' गुलज़ार साहब ने ही लिखा था। 'जंगल बुक' के इस गीत को सुनकर अंदाज़ा हो जाता है कि गुलज़ार साहब शब्दों के कितने धनी हैं। 

बच्चों से गुलज़ार साहब को कितना लगाव है इसका एक अंदाज़ा ऐसे भी लगाया जा सकता है कि पिछले कई सालों से ये आरोही नाम की एक संस्था से जुड़े हैं। ये संस्था भोपाल बेस्ड है और अपाहिज बच्चों की बेहतरी के लिए काम करती है। 

खेलों के बड़े शौकीन हैं गुलज़ार

गुलज़ार साहब खेलों के बहुत शौकीन हैं। एक ज़माने में वो बैडमिंटन खूब खेलते थे। बाद में उन्हें टेनिस खेलने का शौक लग गया। वो रोज़ सुबह जल्दी उठते और टेनिस खेलते। रोजर फेडरर और आंद्रे आगासी गुलज़ार के पसंदीदा टेनिस खिलाड़ी हैं।

गुलज़ार साहब को क्रिकेट का भी बहुत शौक है। सचिन तेंदुलकर से भी ज़्यादा सुनील गावस्कर को गुलज़ार साहब पसंद करते हैं। पाकिस्तानी गेंदबाज़ वसीम अकरम के भी गुलज़ार साहब बहुत बड़े फैन हैं। साथ ही साथ महेंद्र सिंह धोनी को भी गुलज़ार साहब बहुत चाहते हैं। 

अवॉर्ड्स के भी हैं बादशाह

गुलज़ार साहब को मिले अवॉर्ड्स की बात करें तो इन्होंने 5 दफा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 22 दफा फिल्मफेयर अवॉर्ड अपने नाम किया है। 2004 में इन्हें पद्मभूषण सम्मान से भी नवाज़ा गया था। 

वहीं 2013 में गुलज़ार साहब को दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड भी मिल चुका है। 2002 में गुलज़ार साहब को साहित्य अकादमी अवॉर्ड फॉर उर्दू भी दिया गया था।

फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के गीत जय हो के लिए गुलज़ार साहब को एकेडेमी अवॉर्ड फॉर बेस्ट ऑरिजिनल सॉन्ग और ग्रैमी अवॉर्ड भी दिया गया था। मध्य प्रदेश सरकार की तरफ से भी गुलज़ार को राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। 

Gulzar को Meerut Manthan

गुलज़ार की उम्र अब 87 साल हो चुकी है। गुलज़ार अब भी लिखते-पढ़ते रहते हैं। Meerut Manthan ईश्वर से गुलज़ार साहब की अच्छी सेहत की कामना करता है। क्योंकि अभी तो और कई साल गुलज़ार साहब अपनी कलम की धार और अपनी लेखनी के पैनेपन से अपने चाहने वालों को मंत्रमुग्ध करते रहेंगे। जय हिंद।

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