Story of Music Director Naushad Part 01 | संगीत सम्राट नौशाद की कहानी का पहला भाग
Naushad का जन्म हुआ था 25 दिसंबर 1919 को लखनऊ में। उनके घर-खानदान और दूर-दूर की रिश्तेदारियों में भी किसी का मौसिक़ी से कोई नाता नहीं था।
उनके यहां तो मौसिक़ी और मौसिक़ीकारों को नफरत की नज़रों से देखा जाता था। तो भला नौशाद पर कैसे मौसिक़ी हावी हो गई? Naushad को कहां से संगीत का शौक लग गया?
![]() |
Story of Music Director Naushad Part 01 - Photo: Social Media |
इन सवालों के जवाब हमें मिलेंगे Naushad साहब की कहानी में जो सही मायनों में शुरू होती है उत्तर प्रदेश के देवा शरीफ में मौजूद हाजी वारिस अली शाह की दरगाह से। Naushad के मामा हर साल देवा शरीफ में होने वाले उर्स में शामिल होने जाते थे। नौशाद जब दस साल के हुए तो पहली दफा उन्हें भी मामा के साथ देवा शरीफ के उर्स में जाने का मौका मिला।
लखनऊ से बाराबंकी तक का सफर ट्रेन से तय हुआ। और फिर वहां से पैदल ही देवा शरीफ तक पहुंचा गया। उर्स के मौके पर दस दिनों तक देवा शरीफ में किसी मेले का सा माहौल होता था। तरह-तरह की दुकानें सजती थी। और तरह-तरह के कलाकार भी वहां आते। उनमें कुछ ड्रामा कंपनियां भी होती थी।
दूर-दूर से लोग उस उर्स में शामिल होने आते थे। और अधिकतर लोग अपने-अपने तंबू व खाने-पीने का सामान साथ लाते थे।
उसी उर्स में नौशाद साहब ने एक बांसुरी की दुकान देखी। वो बांसुरी वाला दिनभर बांसुरी बेचने का काम करता था। और रात के वक्त कुछ देर तक खुद भी बांसुरी बजाता था।
जाने उस बांसुरी वाले की धुनों में क्या जादू था? Naushad ने जब पहली दफा उसकी बांसुरी सुनी तो वो बहुत प्रभावित हुए। वो तब तक वहीं बैठे रहे जब तक कि बांसुरी वाला बांसुरी बजाता रहा। उस उम्र में Naushad को राग-रागनियों का कोई इल्म नहीं था। लेकिन फिर भी उन्हें उसकी बांसुरी सुनकर बड़ा अच्छा लगा।
और फिर तो ये रोज़ की बात हो गई। जैसे ही Naushad उस बांसुरी वाले की बांसुरी सुनते, वो अपने तंबू से निकलकर उसके पास जाकर बैठ जाते और।
वो बड़े ध्यान से बांसुरी सुनते। और बांसुरी सुनते सुनते नौशाद इतना खो जाते कि उन्हें खाने-पीने, यहां तक कि सोने का भी ख्याल नहीं रहता था।
उर्स में कई कव्वाल व गज़ल गायक भी आते थे। जिनमें से एक थे बाबा रशीद खां। बाबा रशीद खां बहुत अच्छी गज़लें गाते थे।
उनकी गज़लें भी नौशाद को बहुत अच्छी लगती थी। और जब लोग बाबा रशीद खां के लिए तालियां बजाते तो नौशाद को एक अलग ही खुशी महसूस होती थी।
नन्हे नौशाद के ज़ेहन पर देवा शरीफ के उर्स का संगीतमय माहौल कुछ ऐसा हावी हुआ कि घर लौटकर भी वो उसे भुला नहीं पाते थे।
उनका मन पढ़ाई-लिखाई में भी नहीं लगता। उन्हें तो बस इंतज़ार रहने लगा कि कब देवा शरीफ में उर्स आए और कब वो फिर से मामा के साथ उर्स में जाएं।
लखनऊ में नौशाद ने सिनेमा देखना भी शुरू कर दिया। उस ज़माने में चवन्नी का एक टिकट होता था।
लखनऊ के अमीनाबाद में तब एक थिएटर हुआ करता था जिसका नाम था रॉयल थिएटर। आजकल इस थिएटर को मेहरा सिनेमा के नाम से जाना जाता है। नौशाद वहीं पर फिल्में देखने जाते थे।
उस ज़माने में साइलेंट फिल्में चलती थी। नज़ारा कुछ ऐसा होता था कि सामने पर्दे पर फिल्म चल रही है और पास ही एक आर्केस्ट्रा पार्टी बैठी है जो फिल्म के सीन के हिसाब से संगीत बजा रही है।
फिल्म में जब कोई एक्शन सीन आता तो ऑर्केस्ट्रा का एक आदमी खड़ा होकर भोंपू पर चिल्लाता कि मार। मार ना क्या देख रहा है?
नौशाद किसी ना किसी तरह चवन्नी जमा करके सिनेमा देखने रॉयल थिएटर पहुंच ही जाते। और वहां नौशाद आर्केस्ट्रा पार्टी के पास ही जाकर बैठते।
क्योंकि सिनेमा के साथ-साथ उन्हें आर्केस्ट्रा के लोगों को तरह-तरह के साज़ बजाते देखना भी अच्छा लगता था।
नौशाद का भी दिल करता था कि वो भी किसी साज़ पर कुछ बजाने की कोशिश करें। लेकिन उस वक्त वो कहां मुमकिन था। उन
दिनों लखनऊ के लाटूश रोड पर उस्ताद गुरबत अली की एक दुकान थी। वहां हर तरह के संगीत वाद्य बेचे जाते थे।
नौशाद जब भी उस दुकान के सामने से गुज़रते तो बड़ी दिलचस्पी से दुकान में रखे साज़ों को देखते थे।
एक वक्त ऐसा आया जब नौशाद हर रोज़ उस्ताद गुरबत अली की दुकान के बाहर जाकर खड़े हो जाते और उनकी उस बड़ी सी दुकान में रखे वाद्य यंत्रों को बड़ी प्यासी सी नज़रों से देखा करते। एक दिन उस्ताद गुरबत अली ने नौशाद से पूछ ही लिया कि बेटे तुम रोज़ यहां क्यों खड़े रहते हो?
नौशाद ने जब उन्हें अपनी वजह बताई तो उस्ताद को बड़ा अच्छा लगा। उन्होंने नौशाद के शौक की खूब दाद दी।
उस्ताद गुरबत अली नौशाद से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नौशाद को अपने घर पर हारमोनियम बजाने की तालीम देनी शुरू कर दी। यूं इस तरह उस्ताद गुरबत अली खान नौशाद के पहले गुरू हुए।
एक दिन नौशाद ने उस्ताद गुरबत अली से कहा कि अगर आप मुझे दुकान की चाबी दे दें तो मैं रोज़ सुबह जल्दी दुकान खोल दिया करूंगा। और साफ-सफाई भी कर दूंगा।
उस्ताद तो नौशाद के संगीत के प्रति लगाव से बहुत खुश थे ही। सो उन्होंने नौशाद को दुकान की एक चाबी सौंप दी।
नौशाद रोज़ सुबह दुकान खोलते और सफाई करने के बाद एक हारमोनियम लेकर बैठ जाते। और फिर उस्ताद के आने से पहले ही हारमोनियम को उसकी जगह वापस रख देते।
ये सिलसिला कुछ दिन तक यूं ही चलता रहा। मगर एक दिन नौशाद का ये भेद उस्ताद गुरबत अली पर ज़ाहिर हो गया।
हुआ कुछ यूं था कि एक दिन नौशाद हारमोनियम पर उस्ताद लुड्डन की एक धुन का अभ्यास कर रहे थे।
उस्ताद लुड्डन वो शख्स थे जिन्हें नौशाद ने रॉयल सिनेमा की आर्केस्ट्रा पार्टी में हारमोनियम बजाते हुए देखा था।
नौशाद उस धुन को हारमोनियम पर निकालने की कोशिश कर ही रहे थे कि पीछे से उन्हें किसी के खंखारने की आवाज़ सुनाई दी।
नौशाद ने पीछे मुड़कर देखा। उस्ताद गुरबत अली खड़े थे। वो बोले,"तो इसलिए दुकान खोलते हो तुम सुबह-सुबह। ताकि नए साज़ों को खराब कर दो।"
ये सुनकर नौशाद घबरा गए। उन्होंने उस्ताद जी से माफी मांगी। उस्ताद जी मुस्कुराए और बोले,"तुमने सज़ा देने वाला काम किया है तो सज़ा तो तुम्हें ज़रूर मिलेगी।"
नौशाद ने गिड़गिड़ाते हुए कहा" इस दफा माफ कर दीजिए। अगली बार से ऐसा नहीं करूंगा।" उस्ताद ने पूछा,"ये बताओ। मेरे अलावा और कहां से हारमोनियम सीखते हो।"
नौशाद ने जवाब दिया,"कहीं नहीं।" उस्ताद ने पूछा,"तो अभी जो तुम बजा रहे थे वो तुमने किससे सीखा?"
तब नौशाद ने उन्हें रॉयल सिनेमा के आर्केस्ट्रा वाले उस्ताद लुड्डन वाला किस्सा बताया। उस्ताद जी ने फिर पूछा,"तुम्हारे पास घर पर हारमोनियम है?" "नहीं" नौशाद ने जवाब दिया।
उस्ताद गुरबत अली बोले,"नौशाद। तुम्हारी सज़ा ये है कि तुम इस हारमोनियम को मेरी तरफ से तोहफा समझकर अपने पास रखो। और इस पर खूब मेहनत से रियाज़ करो।"
यूं नौशाद को उनके जीवन का पहला हारमोनियम भी मिल गया। उस्ताद गुरबत अली ने उस्ताद लुड्डन को बुलवाया।
नौशाद ने उस्ताद लुड्डन की एक धुन उन्हें बजाकर सुनाई। उस्ताद लुड्डन वो सुनकर हैरान रह गए। क्योंकि उन्होंने तो नौशाद को वो धुन कभी सिखाई ही नहीं थी।
ना ही वो नौशाद को जानते थे। हां, रॉयल सिनेमा में उन्होंने नौशाद को देखा ज़रूर था। लेकिन बात तो नौशाद से उनकी कभी नहीं हुई थी।
उस्ताद गुरबत अली ने उस्ताद लुड्डन से कहा कि मैं इस बच्चे को आपके हवाले करता हूं। इसे बहुत शौक है। इसे आप दिल से सिखाना। ये बहुत नाम करेगा। उसके बाद उस्ताद लुड्डन ने नौशाद को रॉयल सिनेमा बुलाना शुरू कर दिया।
यूं नौशाद को अब रॉयल सिनेमा में घुसने के लिए टिकट खरीदने की ज़रूरत भी नहीं रही। कहां तो पहले नौशाद आर्केस्ट्रा टीम के पीछे बैठा करते थे। और कहां अब उन्हें बराबर में बैठाया जाने लगा।
नाइट शोज़ में नौशाद को भी हारमोनियम बजाने का मौका मिलने लगा। उस्ताद गुरबत अली ने नौशाद को उस्ताद बब्बन खां से भी मिलवाया।
उस्ताद बब्बन खां उस वक्त लखनऊ में क्लासिकल गायकी का बड़ा नाम थे। उस्ताद बब्बन खां ने नौशाद को क्लासिकल गायकी की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी।
मगर गायकी में नौशाद साहब का दिल लगा नहीं। लखनऊ के ही एक उस्ताद यूसुफ अली खां हुआ करते थे जो बहुत अच्छे सितार वादक थे।
उनके पास नौशाद ने सितार बजाना सीखा। लेकिन फिर जल्द ही नौशाद उम्र के उस दौर में आ गए जब उन्हें समझ आना बंद हो गया कि उन्हें वास्तव में करना क्या है।
इत्तेफाक से तभी नौशाद को एक ड्रामा कंपनी में पुराने गीतों की धुनें बनाने का काम मिल गया। वो काम नौशाद ने बड़ी कुशलता से किया। और तब नौशाद को अहसास हो गया कि मैं कंपोजिशन अच्छी तरह से कर सकता हूं।
साथियों यहां नौशाद की इस कहानी पर मैं विराम लगाता हूं। ये कहानी अभी तो शुरू ही हुई है। और आप देख सकते हैं कि शुरुआती कहानी में ही लेख कितना लंबा हो गया है।
यानि कुछ लेखों में नौशाद साहब की पूरी कहानी बयां करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। ये तो एक पूरी सीरीज़ ही चलानी पड़ेगी। जल्द ही आपको इस सीरीज़ का दूसरा भाग भी पढ़ने को मिलेगा। नौशाद साहब को नमन।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें