Yakub | भुलाया जा चुका एक शानदार Actor जो पुरानी फ़िल्मों की जान हुआ करता था | पढ़िए इनकी पूरी कहानी | Biography
किसी ज़माने में मामूली वेटर था ये इंसान। लेकिन किस्मत ने ऐसी पलटी मारी की फिल्मी दुनिया में इनकी एंट्री हो गई। और फिर तो इन्होंने अपनी एक्टिंग से ऐसा तहलका मचाया कि ये फिल्मी दुनिया का चहेते कलाकार ये साहब बन गए।
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Actor Yakub Biography - Photo: Social Media |
आज कहानी कही जाएगी 1930 और 1940 के दशक की फिल्मों का एक बड़ा नाम रहे Actor Yakub की। वो अभिनेता जिन्होंने कॉमेडी भी की, विलेनी भी की, और चरित्र किरदार भी निभाए। और फिर 24 अगस्त 1958 को मात्र 55 बरस की उम्र में Yakub ये दुनिया छोड़कर चले भी गए।
याकूब जी का पूरा नाम था याकूब महबूब खान। 03 अप्रैल 1903 को मध्य प्रदेश के जबलपुर में इनका जन्म हुआ था। उनके पिता पठान महबूब खान लकड़ियों के ठेकेदार थे।
पिता चाहते थे कि याकूब भी उनके ही काम में आएं। लेकिन उन्हें अपने पिता के काम में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी। वो काम उन्हें पसंद ही नहीं आता था।
उस ज़माने में याकूब मोटर मैकेनिक बनने का ख्वाब देखा करते थे। एक्टिंग व फिल्में भी उन्हें बचपन से ही पसंद आती थी। लेकिन एक्टर बनने के बारे में उन्होंने उस वक्त सोचा भी नहीं था।
उनके पिता ज़रा सख्त मिजाज़ इंसान थे। वो ज़बरदस्ती याकूब को अपने लकड़ी वाले काम में घुसाना चाहते थे। पिता की ज़बरदस्ती से तंग आकर एक दिन याकूब अपने घर से भाग निकले और किसी तरह लखनऊ पहुंच गए।
लखनऊ में उन्होंने एक मोटर गैराज में मैकेनिक का काम सीखने की ख्वाहिश से काम शुरू किया। लेकिन जल्द ही वहां से याकूब का मन ऊब गया। वो काम छोड़कर याकूब ने एक ढाबे पर वेटर की नौकरी पकड़ ली।
किस्मत ने अपनी चाल चली और लखनऊ की एल्केज़ेंड्रिया नाटक कंपनी से जुड़ने का मौका याकूब को मिला। एक्टिंग तो उन्हें शुरू से ही पसंद थी। सो वेटर की नौकरी के साथ-साथ अगले दो सालों तक याकूब उस नाटक कंपनी से जुड़े रहे और एक्टिंग करते रहे।
साल 1921 में Yakub मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद Yakub की किस्मत उन्हें शिपिंग लाइन में ले गई। किसी तरह याकूब को मैकेनिकल ट्रेनिंग मिल गई और मुंबई में उन्हें एस.एस.मदुरा स्टीमर पर नेवी बॉय के तौर पर नौकरी मिल गई।
उस नौकरी में रहते हुए याकूब को लंदन, पेरिस, ब्रसेल्स व और कुछ बड़े शहरों में जाने का मौका मिला। उस नौकरी के दौरान याकूब को कई सारी अंग्रेजी फिल्में देखने को मिली।
साल 1922 में याकूब शिप की वो नौकरी छोड़कर कोलकाता आ गए और वहां अमेरिकन एक्स्प्रेस कंपनी में टूरिस्ट गाइड की हैसियत से नौकरी करने लगे।
उस ज़माने में कोलकाता फिल्म निर्माण का बड़ा केंद्र था। इसलिए फिल्मों में काम करने की ख्वाहिश याकूब के मन में भी आने लगी। कोलकाता में तो याकूब को फिल्मों मे काम नहीं मिला। इसलिए 1924 में वो फिर से मुंबई आए।
मुंबई में याकूब को एक थिएटर कंपनी में प्रॉपर्टी मास्टर की नौकरी मिल गई। उसी साल याकूब शारदा फिल्म कंपनी से भी जुड़े। और साल 1925 में पहली दफा बाजीराव मस्तानी नामक एक साइलेंट फिल्म में याकूब को अभिनय करने का मौका मिला। वो फिल्म भालजी पेंढारकर ने बनाई थी।
उसके बाद तो याकूब पूरी तरह से एक्टिंग की दुनिया में मशरूफ हो गए। कहा जाता है कि उस ज़माने में याकूब ने लगभग 50 साइलेंट फिल्मों में काम किया था। गुलज़ार(1927), कमला कुमारी(1928), सरोवर की सुंदरी(1928), चंद्रावली(1928), मिलन दीनार(1929) व शकुंतला(1929)। ये कुछ वो प्रमुख साइलेंट फिल्में हैं जिनमें याकूब साहब ने अभिनय किया था। और अधिकतर में याकूब विलेनियस किरदारों में नज़र आए थे।
साल 1931 में आई मेरी जान वो पहली टॉकी फिल्म थी जिसमें याकूब ने काम किया था। वो फिल्म सागर मूवीटोन के बैनर तले प्रफुल्ल घोष ने बनाई थी। उस फिल्म की हीरोइन उस दौर की बहुत नामी एक्ट्रेस ज़ुबैदा थी। और याकूब उसमें विलेन थे।
इसी साल आई वीर अभिमन्यू में याकूब ने ज़ुबैदा, महबूब खान व जय मर्चेंट के साथ काम किया। साल 1935 में आई फिल्म तलाश-ए-इश्क में याकूब ने संजय दत्त की नानी जद्दनबाई संग भी अभिनय किया था। वो फिल्म जद्दनबाई ने ही डायरेक्ट व प्रोड्यूस की थी।
नामी डायरेक्टर महबूब खान जब एक्टर हुआ करते थे तब याकूब के साथ उन्होंने कई फिल्मों में काम किया था जैसे बुलबुल-ए-बगदाद, नाचवाली इत्यादि। दोनों की बहुत अच्छी दोस्ती हो गई थी।
1935 में जब बतौर डायरेक्टर महबूब खान ने अपनी पहली फिल्म अल-हिलाल बनाई थी तब उन्होंने याकूब को भी उसमें एक अहम किरदार दिया था। 1940 में आई महबूब खान की औरत में भी याकूब ने काम किया था।
औरत वही फिल्म है जिसे बाद में महबूब खान ने मदर इंडिया के नाम से रीमेक किया था। याकूब जी ने औरत में वही किरदार निभाया था जो मदर इंडिया में सुनील दत्त जी ने निभाया था। औरत में मां का किरदार सरदार अख्तर ने निभाया था। वो किरदार मदर इंडिया में नर्गिस ने निभाया था। बिरजू के रोल में याकूब के काम को उस वक्त बहुत पसंद किया गया था।
याकूब जब कॉमेडी करने लगे तो उस वक्त के नामी कॉमेडियन गोप संग उनकी जोड़ी खूब जमी। गोप-याकूब की जोड़ी को भारत की दूसरी लॉरेल एंड हार्ड की जोड़ी कहा जाने लगा। इस जोड़ी से पहले दीक्षित-गौरी की जोड़ी को भारत के लॉरेल एंड हार्डी कहा जाता था।
याकूब और गोप की बात करें तो इस जोड़ी की कुछ प्रमुख फिल्में थी बाज़ार(1949), पतंगा(1949), बेकसूर(1950), मेहरबानी(1950) और सगाई(1951)। याकूब जी ने 1948 की गृहस्थी व 1953 की मालकिन में भी काम किया था।
इन दोनों ही फिल्मों को बाद में रीमेक किया गया था। गृहस्थी का रीमेक थी घर बसाके देखो(1963) और मालकिन का रीमेक थी बिरादरी(1969)। इन दोनों ही फिल्मों में महमूद साहब ने याकूब जी वाले किरदार निभाए थे।
याकूब ने अपने करियर में तीन फिल्मों का डायरेक्शन किया था। लेकिन बतौर डायरेक्टर उन्हें कभी सफलता नहीं मिली। याकूब द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी 1937 में आई सागर का शेर। वो फिल्म सागर मूवीटोन के बैनर तले बनी थी।
उस फिल्म में याकूब ने एक्टिंग भी की थी। उसमें बिब्बो, पेसी पटेल, संकठा प्रसाद, राजा मेहदी औऱ डेविड जैसे कलाकार थे। 1939 में याकूब ने अपनी दूसरी फिल्म डायरेक्ट की जिसका नाम था उसकी तमन्ना।
याकूब ने उसमें भी अभिनय किया था। उस फिल्म में माया, भूडो आडवानी, कौशल्या, संकठा प्रसाद, पुतली व सतीश जैसे कलाकार थे।
याकूब द्वारा निर्देशित तीसरी व आखिरी फिल्म थी 1949 की आईए। यही वो फिल्म भी थी जिसमें मुबारक बेगम ने पहली दफा प्लेबैक सिंगिगं की थी। याकूब के कज़िन अलाउद्दीन इस फिल्म के साउंड रिकॉर्डिस्ट थे। संगीत दिया था नाशाद(शौकत देहलवी) ने।
वो फिल्म तो याकूब ने स्वंय प्रोड्यूस भी की थी। लेकिन वो फिल्म फ्लॉप हो गई। और याकूब ने जो पैसा उस फिल्म में लगाया था वो डूब गया। याकूब उस फिल्म को अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती मानते थे।
उस फिल्म में सुलोचना चटर्जी, मसदू, जानकी दास, शीला नायक और अशरफ खान जैसे कलाकार थे। याकूब ने भी उसमें काम किया था।
साल 1945 में आई ज़ीनत में बोला गया याकूब का एक कैचफ्रेज़ बड़ा मशहूर हुआ था जो कुछ इस प्रकार था,"रहे नाम अल्लाह का।" ऐसे ही 1946 की नेक परवीन में याकूब का बोला गया कैचफ्रेज़ "मानता हूं सुलेमान हूं" भी लोकप्रिय हुआ था।
इसी फिल्म में याकूब ने "खुश रहो प्यारे" भी बोला था। उस वक्त याकूब के ये कैचफ्रेज़ उनके फैंस खूब बोलते थे। कॉमेडियन महमूद जब अपने संघर्ष के दिनों में थे तब वो बॉम्बे टॉकीज़ के बाहर बड़ी बेसब्री से याकूब से मिलने का इंतज़ार करते थे।
याकूब तब जानते थे कि महमूद फाइसेंशियल मुश्किलों में घिरे हैं। याकूब महमूद को एक-दो रुपए मदद के तौर पर दे दिया करते थे। फिल्मों में काम करने के साथ-साथ याकूब धार्मिक भी खूब थे। पांचों वक्त नमाज़ पढ़ते थे। फिल्म इंडस्ट्री के उनके दोस्त उन्हें मौलाना कहकर पुकारते थे।
साल 1930 में याकूब की शादी एक्ट्रेस खुर्शीद बानो से हो गई थी। उनका कोई बच्चा नहीं हुआ। अपने 34 साल लंबे करियर में याकूब ने 130 से भी ज़्यादा फिल्मों में काम किया था।
विकीपीडिया के मुताबिक, 1958 में आई 10 O'Clock याकूब की आखिरी फिल्म थी। इसी साल यानि 1958 में ही 24 अगस्त को 55 साल की उम्र में याकूब जी का निधन हो गया।
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