Making of Jewel Thief | Dev Anand क्लासिक फ़िल्म ज्वैल थीफ़ के बनने की शानदार कहानी | Vijay Anand Goldie

आज आपको देवानंद साहब की क्लासिक फिल्म ज्वैल थीफ के बनने की कुछ बड़ी रोचक कहानियां बताता हूं। हिंदी सिनेमा की टॉप सस्पेंस थ्रिलर फिल्म्स की बात हो तो "ज्वैल थीफ" के बिना वो बात एकदम अधूरी होगी। 27 अक्टूबर 1967 को "ज्वैल थीफरिलीज़ हुई थी 


नवकेतन फिल्म्सके बैनर तले ये फिल्म डायरेक्ट की थी देव साहब के छोटे भाई विजय आनंद उर्फ गोल्डी आनंद ने। फिल्म की कहानी लिखी थी के..नारायन ने। जबकी स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स गोल्डी आनंद ने स्वंय लिखे थे। फिल्म को एडिट भी गोल्डी आनंद ने ही किया था। 


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Making of Jewel Thief 1967 - Photo: Social Media

"ज्वैल थीफ" की अधिकतर शूटिंग सिक्किम में हुई थी। और ये देवानंद थे जिन्होंने अपने छोटे भाई गोल्डी आनंद को सलाह दी थी कि इस फिल्म को सिक्किम में फिल्माया जाए। दरअसल, गोल्डी चाहते थे कि "ज्वैल थीफ" की शूटिंग किसी ऐसी जगह की जाए जो बेहद खूबसूरत हो और जिसे फिल्मों में देखा ना गया हो। 


इत्तेफाक से देव साहब एक दफा सिक्किम घूम चुके थे। सिक्किम की प्राकृतिक सुंदरता उन्हें बहुत पसंद आई थी। तय हो गया कि ज्वैल थीफ की शूटिंग सिक्किम में ही की जाएगी। 


लेकिन गोल्डी, जो उस वक्त तक कभी सिक्किम नहीं गए थे, उन्होंने एक दफा खुद अपनी आंखों से सिक्किम को देखने की ख्वाहिश जताई।


देवानंद और गोल्डी आनंद, दोनों सिक्किम के लिए निकल गए। दार्जिलिंग से दोनों कार में सवार होकर सिक्किम की राजधानी गंगटोक पहुंचे। रास्ते में जब गोल्डी आनंद ने सिक्किम की प्राकृतिक सुंदरता देखी तो वो भी उसके मुरीद हो गए। 


अपनी ऑटोबायोग्राफी "रोमांसिंग विद लाइफ" में देवानंद लिखते हैं कि सिक्किम के मनमोहक नज़ारे गोल्डी को भी बहुत पसंद आए। रास्ते भर देवानंद इस बात के लिए खुद पर गर्व करते रहे कि सिक्किम में ज्वैल थीफ की शूटिंग करने का आईडिया उनका था। 


गंगटोक पहुंचकर देवानंद और गोल्डी सिक्किम के राजा के महल पहुंचे। वहां शाही मेहमानों की तरह उनका स्वागत किया गया। उस ज़माने में सिक्किम पूरी तरह से भारत में विलय नहीं हुआ था।


सिक्किम की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भारतीय सेना की थी। लेकिन सिक्किम में राज अभी भी वहां के राजा, जिन्हें चोग्याल कहा जाता था, उनका ही चलता था। 


"रोमांसिंग विद लाइफ" में देवानंद लिखते हैं कि राजा का महल कुछ इस तरह से बना था जिसे देखकर लगता था जैसे उसे पारंपरिक सिक्किमी और पश्चिमी निर्माण कला को मिक्स करके बनाया गया हो। राजा और रानी देवानंद गोल्डी आनंद से मिले।

राजा की पत्नी एक अमेरिकन महिला थी जो पारंपरिक सिक्किमी परिधान पहने थी। कॉफी के दौरान देवानंद ने जब राजा को बताया कि वो सिक्किम में "ज्वैल थीफनाम की अपनी फिल्म की शूटिंग करना चाहते हैं तो राजा-रानी बहुत खुश हुए। 

रानी ने मुस्कुराते हुए पूछा,"कौन है ज्वैल थीफ?" अपने भाई गोल्डी की तरफ इशारा करते हुए देवानंद बोले,"मेरे डायरेक्टर आपको बताएंगे।" हालांकि गोल्डी आनंद ने मुस्कुराते हुए बड़े प्यार से कहा कि फिलहाल वो कुछ नहीं बता सकेंगे।

चूंकि सिक्किम तब देश का एक अति संवेदनशील इलाका था तो वहां चप्पे-चप्पे पर भारतीय सेना तैनात थी। 1962 के युद्ध के बाद भारत और चीन के रिश्ते भी काफी तनावपूर्ण थे। 

चूंकि सिक्किम का कुछ हिस्सा चीन की सीमा से भी सटा है तो ऐसे में सेना पर किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए हर समय तैयार रहने का दबाव होता था। 

उन दिनों सिक्किम में सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी लैफ्टिनेंट-जनरल सगत सिंह पर थी। देवानंद उनसे भी मिलने गए। उन्होंने जब देवानंद से सिक्किम आने की वजह पूछी तो देवानंद ने उन्हें भी बताया कि वो सिक्किम की प्राकृतिक खूबसूरती में अपनी एक फिल्म की शूटिंग करना चाहते हैं।

दरअसल, सेना से परमिशन लिए बिना शूटिंग की ही नहीं जा सकती थी। जनरल सगत सिंह ने देवानंद से कहा कि वो जहां चाहें वहां शूटिंग कर सकते हैं। और उन्हें वहां जाने की भी इजाज़त मिलेगी जहां आम लोगों को नहीं जाने दिया जाता है।

राजा पाल्डेन थोंडुप नामग्याल लैफ्टिनेंट-जनरल सगत सिंह से शूटिंग की परमिशन्स मिलने के बाद देवानंद और गोल्डी आनंद मुंबई वापस लौट आए। 

और फिर कुछ दिनों बाद सभी ज़रूरी साज़ो-सामान, कलाकारों क्र्यू मेंबर्स की टीम के साथ सिक्किम में "ज्वैल थीफ" की शूटिंग करने आए।

देवानंद जी ने "रोमांसिंग विद लाइफ" में लिखा है कि शूटिंग के दौरान उन्हें लगा जैसे पूरा सिक्किम उनके स्वागत के लिए हमेशा तैयार रहता था। किसी भी तरह की मदद की ज़रूरत हो, सिक्किम के लोग कभी पीछे नहीं हटे। 

दिन में फिल्म की शूटिंग की जाती थी और रात के वक्त लगभग रोज़ पार्टी होती थी। कभी पार्टी राजा के साथ उनके महल में होती थी तो कभी लैफ्टिनेंट-जनरल सगत सिंह उनके जवानों के साथ। 

एक दिन किन्हीं कारणों से शूटिंग कैंसिल हो गई। उस दिन जनरल सगत सिंह देवानंद को अपने साथ "नाथुला पास" चीन का बॉर्डर दिखाने ले गए। उन दिनों सिक्किम में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी।

बर्फबारी भी हो रही थी। सेना की जोंगा जीप में सवार जनरल सगत सिंह देवानंद "नाथुला पासकी तरफ जैसे-जैसे बढ़ते जा रहे थे, ठंड और बर्फबारी भी बढ़ती जा रही थी। 

जब ये दोनों भारतीय सेना की आखिरी पोस्ट पर पहुंचे तो वहां तैनात सेना के जवान फिल्मस्टार देवानंद को देखकर बड़े उस्ताहित हुए। एक जवान फौरन देवानंद जनरल सगत सिंह के लिए गरमागरम चाय लेकर आया। 

एक जवान ने देवानंद को अपना ओवरकोट दिया तो एक ने लॉन्ग बूट दिए। तथा एक जवान देवानंद के लिए एक गरम टोपी और लैदर के दस्ताने लेकर आया।  

रास्तों पर बर्फ की लगभग छह इंच मोटी परत जम चुकी थी। लैफ्टिनेंट-जनरल सगत सिंह देवानंद तथा और कुछ जवानों ने पैदल चढ़ाई शुरू की। 

शीर्ष पर पहुंचने के बाद देवानंद ने एक कंटीले तारों वाली बाड़ के दूसरी तरफ चीनी सैनिकों को निगरानी करते देखा। उनकी बंदूकों और दूरबीनों का रुख भारत की तरफ था। जैसे कि वो जंग के लिए एकदम तैयार बैठे हों। 

तभी एक भारतीय सैन्यकर्मी ने भी अपनी जेब से एक दूरबीन निकालकर देवानंद को दी। ताकि देवानंद दुश्मन की पोस्ट को और अच्छी तरह से देख सकें। 

"हम रोज़ उन्हें और वो हमें ऐसे ही देखते हैं। ताकि कोई गलतफहमी में ना रहे। वो लोग कभी-कभी भारतीय फिल्मी गाने भी चलाते हैं।

उस सैन्यकर्मी ने देवानंद को बताया। उसने देवानंद से ये भी कहा कि आप चाहें तो और थोड़ा आगे जाकर अच्छी तरह से ये नज़ारा देख सकते हैं।

देवानंद ने दूरबीन से देखते हुए ही चीनी सैनिकों की तरफ हाथ हिलाया। लेकिन उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। 

वहां पास में ही बर्फ में एक तस्वीर लगी थी। देवानंद ने उस पर जूम किया तो पता चला कि वो माओत्से-तुंग की तस्वीर थी। 

कुछ सेकेंड्स बाद देवानंद ने नोटिस किया कि कुछ चीनी सिपाही भी अपनी दूरबीनों से उन्हें ही देख रहे थे। 

देवानंद ने जब आस-पास का नज़ारा देखने के लिए दूरबीन को दूसरी तरफ घुमाया तो उन्हें एक काले रंग का कुत्ता दिखा। वो कुत्ता चीनी साइड में था। और इस तरफ देखते हुए पूंछ हिला रहा था। 

कुत्ते वाला वो दृश्य देवानंद के मस्तिष्क पर कुछ ऐसे अंकित हुआ कि कुछ साल बाद जब उन्होंने अपनी डायरेक्टोरियल डेब्यू "प्रेम पुजारी" बनाई तो उसमें भी उन्होंने ठीक वैसा ही कुत्ते वाला एक दृश्य रखा। 

लेकिन "प्रेम पुजारी" में उन्होंने उस सीन को बस इतना इंप्रोवाइज़ किया कि जब दोनों देशों की सेना के जवानों के बीच फायरिंग होती है तो वो कुत्ता मारा जाता है। 

गंगटोक में "ज्वैल थीफ" की आखिरी दिन की शूटिंग खत्म होने के बाद लैफ्टिनेंट-जनरल सगत सिंह की तरफ से फिल्म यूनिट के लिए एक पार्टी रखी गई। फिल्म क्र्यू के सम्मान में सेना के बैंड पर भी कई धुनें छेड़ी गई। 

सिक्किम के राजा रानी भी पार्टी का हिस्सा बने। खूब नाच-गाना हुआ। और आखिरकार फिल्म यूनिट सिक्किम से मुंबई वापस लौट आई। 

27 अक्टूबर 1967 को जब "ज्वैल थीफरिलीज़ हुई तो सिने प्रेमियों ने इस फिल्म को बेहद पसंद किया। "ज्वैल थीफबड़ी हिट साबित हुई। फिल्म का एक प्रीमियर दिल्ली के ओडियन सिनेमा में भी रखा गया था। 

उस प्रीमियर से पहले देवानंद दार्जिलिंग में मौजूद थे। लेकिन चूंकि उन्हें प्रीमियर में शामिल होना था तो वो पहली फ्लाइट लेकर दिल्ली गए। 

लोगों को जब पता चला कि ओडियन सिनेमा पर खुद देवानंद आने वाले हैं तो वहां ज़बरदस्त भीड़ जमा हो गई। जैसे ही देवानंद वहां पहुंचे तो भीड़ में शामिल कुछ अति उत्साही लोगों ने देवानंद को अपने कंधों पर उठा लिया। 

देवानंद से हाथ मिलाने के लिए लोग बेकाबू होने लगे। कुछ तो ऐसे थे जो चिकोटी काटकर देख रहे थे कि ये सच में असली देवानंद ही है? देवानंद के गले में फूल-मालाओं का ढेर लग गया। 

कई लोग ऐसे भी थे जो एक दफा देवानंद का हाथ पकड़ लेते तो जल्दी से छोड़ने को तैयार ही नहीं होते। देवानंद के चारों तरफ बेतहाशा भीड़ थी। 

अचानक देवानंद ने गौर किया कि किसी का हाथ उनकी पैंट की पिछली जेब पर गया है। उन्होंने अपनी जेब पर हाथ लगाया तो वो दंग रह गए। उनका बटुआ गायब हो चुका था। 

यानि फैन्स की उस भीड़ में कोई जेब-कतरा भी घुस आया था जिसने उस दिन देवानंद साहब की जेब पर ही हाथ साफ कर दिया। 

"रोमांसिंग विद लाइफ" में इस घटना का ज़िक्र करते हुए देवानंद जी ने लिखा है कि जब उन्हें पता चला कि उनका बटुआ चोरी हो चुका है तो वो शांत रहे। 

उस वक्त जो ओडियन सिनेमा के बाहर माहौल था उसमें किसी तरह की प्रतिक्रिया देना उन्हें सही नहीं लगा। 

हालांकि उन्हें इस बात का दुख ज़रूर था कि बटुए के साथ उसमें रखे 15 हज़ार रुपए भी चोरी हो गए हैं। उस ज़माने में 15 हज़ार रुपए अच्छी-खासी रकम हुआ करती थी। 

लेकिन उस दिन उन्होंने सोचा कि चलो, आज उस जेब-कतरे को भी खुश होने दिया जाए जो इस वक्त 15 हज़ार कैश से भरे उनके बटुए को चुराकर शायद खुशी से नाच रहा होगा।    

"ज्वैल थीफ" फिल्म से जुड़ी और कुछ रोचक बातें।

1- बॉक्स ऑफिस इंडिया के मुताबिक, तकरीबन 80 लाख रुपए के बजट में बनी ज्वैल थीफ ने वर्ल्डवाइड 3.5 करोड़ रुपए का कलैक्शन किया था। ज्वैल थीफ 1967 की छठी सबसे सफल फिल्म थी। 1967 की शीर्ष पांच सबसे सफल फिल्में थी क्रमश:, उपकार, राम और श्याम, फर्ज़, हमराज़ शागिर्द।

2- "ज्वैल थीफ" में अशोक कुमार ने बेहद अहम किरदार निभाया था। गोल्डी ने देवानंद से कहा था कि उस रोल के लिए दादामुनि अशोक कुमार को लिया जाना चाहिए। क्योंकि वो किसी भी तरह का किरदार निभा सकते हैं। 

खुद देवानंद भी चाहते थे कि वो रोल अशोक कुमार निभाएं। क्योंकि बरसों पहले देवानंद को उनके करियर का पहला बड़ा ब्रेक "ज़िद्दी" अशोक कुमार ने ही दिया था। देवानंद अशोक कुमार के उसी अहसान के प्रति सम्मान ज़ाहिर करना चाहते थे। 

हालांकि जब अशोक कुमार जी को "ज्वैल थीफ" में काम करने का ऑफर दिया गया था तो उन्होंने कुछ शर्तें रख दी। दरअसल, उन्हीं दिनों अशोक कुमार अमेरिका से अपनी बायपास सर्जरी कराकर लौटे थे। 

जब देवानंद और गोल्डी आनंद उन्हें ज्वैल थीफ में काम करने का ऑफर देने के लिए उनसे मिले तो कहानी सुनने के बाद अशोक कुमार ने उनसे कहा,"मैं फिल्म में किसी तरह की मार-पिटाई वाला सीन नहीं कर सकूंगा। ना ही शाम पांच बजे के बाद शूटिंग कर पाऊंगा। 

और मुझे डॉक्टर्स ने एक से डेढ़ बजे के बीच लंच करने की सलाह दी है तो लंच इतने बजे तक ही हो जाना चाहिए।अशोक कुमार की सभी शर्तें मान ली गई और वो "ज्वैल थीफ" का हिस्सा बन गए। एक अहम हिस्सा।

3- दादामुनि अशोक कुमार ने ज्वैल थीफ में जो किरदार निभाया है वो उनसे भी पहले गोल्डी आनंद ने राज कुमार को ऑफर किया था। उन दिनों राज कुमार से गोल्डी आनंद की बहुत अच्छी दोस्ती हुआ करती थी। 

इसलिए जब उस किरदार की कास्टिंग का ज़िक्र आया तो गोल्डी ने सबसे पहले राज कुमार का नाम देवानंद को सुझाया। हालांकि गोल्डी इस बात से भी वाकिफ थे कि राज कुमार अक्सर अपने अक्खड़ मिज़ाज के चलते डायरेक्टर-प्रोड्यूसर को परेशान भी करने लगते हैं। लेकिन अपनी दोस्ती के भरोसे उन्होंने राज कुमार से "ज्वैल थीफके बारे में बात की। 

गोल्डी ने राज कुमार को वो किरदार विस्तार से नैरेट किया। राज कुमार ने कुछ दिन का समय मांगा। लेकिन कई दिन बीत जाने के बाद भी जब राज कुमार ने गोल्डी आनंद को कोई जवाब नहीं दिया तो गोल्डी ने खुद ही राज कुमार को फोन किया। 

फोन पर राज कुमार ने गोल्डी से फिल्म की स्क्रिप्ट देने की डिमांड की। मगर गोल्डी उसके लिए तैयार नहीं हुए। इस तरह राज कुमार "ज्वैल थीफफिल्म का हिस्सा ना बन सके। कुछ लोग इस बारे में ये भी कहते हैं कि राज कुमार देवानंद की वजह से "ज्वैल थीफमें काम नहीं करना चाहते थे। 

क्योंकि देवानंद उस फिल्म के प्रोड्यूसर और मुख्य हीरो थे। जबकी राज कुमार को जो किरदार ऑफर किया जा रहा था वो बेहद अहम भले ही था, लेकिन निगेटिव किरदार था।

4- देवानंद चाहते थे कि "ज्वैल थीफकी हीरोइन सायरा बानो हों। लेकिन जब उन्होंने सायरा बानो को फिल्म में काम करने का ऑफर दिया तो सायरा बानो ने मना कर दिया। 

दरअसल, उन्हीं दिनों सायरा बानो और दिलीप कुमार की शादी हुई थी। और शादी के बाद सायरा बानो कुछ वक्त का ब्रेक चाहती थी। 

सायरा बानो के इन्कार करने के बाद वैयजयंती माला को फिल्म ऑफर की गई। और शुरुआती ना-नुकुर के बाद आखिरकार वैयजयंती माला "ज्वैल थीफ" में काम करने के लिए राज़ी हो गई। जबकी एक दूसरे अहम किरदार के लिए तनुजा को सिलेक्ट कर लिया गया।

5- "ज्वैल थीफ" में देवानंद कई दृश्यों में एक अनोखी टोपी पहने दिखाई देते हैं। दरअसल, देवानंद को तरह-तरह की टोपियां खरीदने का शौक था। "ज्वैल थीफ" वाली टोपी देवानंद ने डेनमार्क की राजधानी कोपेनहैगन से खरीदी थी। 

वो टोपी जब गोल्डी आनंद ने देखी तो उन्हें लगा कि उसका इस्तेमाल "ज्वैल थीफ" में किया जा सकता है। क्योंकि वो टोपी किरदार को ग्लैमरस और मिस्टीरियस बना सकती है। 

इस तरह डेनमार्क से लाई गई वो टोपी "ज्वैल थीफ" फिल्म में इस्तेमाल की गई। फिल्म रिलीज़ होने के बाद वो टोपी भी बहुत लोकप्रिय हुई थी।

6- जब "ज्वैल थीफ" के संगीत की बात आई तो गोल्डी आनंद के दिमाग में सिर्फ एक ही नाम आया। वो नाम था एस.डी.बर्मन। हालांकि संगीतकार जयदेव ने भी कोशिश की थी कि "ज्वैल थीफ" में संगीत देने का मौका उन्हें मिले। उन दिनों जयदेव "नवकेतन फिल्म्स" से ही जुड़े थे। 

जब जयदेव जी ने "ज्वैल थीफ" का संगीत कंपोज़ करने की अपनी ख्वाहिश देवानंद गोल्डी आनंद को बताई तो गोल्डी आनंद ने ये कहकर उन्हें मना कर दिया कि जिस तरह का संगीत उन्होंने "ज्वैल थीफ" के लिए सोचा है वो सिर्फ और सिर्फ एस.डी. बर्मन ही दे सकते हैं।

7- "ज्वैल थीफ" के गीत भी बहुत लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के सभी गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे थे। लेकिन एक गीत शैलेंद्र जी ने लिखा था। उस गीत के बोल हैं "रुला के गया सपना मेरा। बैठी हूं कब हो सवेरा।" दरअसल, पहले शैलेंद्र जी को ही "ज्वैल थीफ" के गीत लिखने की ज़िम्मेदारी दी गई थी।

"नवकेतन फिल्म्सकी ही "गाइड" के सभी गीत भी शैलेंद्र जी ने ही लिखे थे। गाइड के दौरान गोल्डी आनंद और शैलेंद्र जी के बीच बहुत अच्छी दोस्ती हो गई थी। इसलिए जब "ज्वैल थीफ" के गीतों की बारी आई तो गोल्डी ने एक दफा फिर से शैलेंद्र को ही याद किया। 

शैलेंद्र ने पहला गीत तो लिख दिया। लेकिन जब शैलेंद्र ने "होठों में ऐसी बात" गीत लिखना शुरू किया तो उनकी तबियत बिगड़ने लगी। शैलेंद्र इस गीत का मुखड़ा लिख चुके थे। मगर गीत पूरा करने का मौका उन्हें ना मिल सका। उनकी मृत्यु हो गई। तब मजरूह सुल्तानपुरी को अन्य गीत लिखने के लिए साइन किया गया। 

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