Lesser Known Stories of Legendary Bollywood Comedian Johnny Walker | जॉनी वॉकर साहब की शानदार और ज़बरदस्त कहानियां

"इस शराबी को उठाकर बाहर फेंक दो।" गुरूदत्त जी ने नवकेतन फिल्म्स के स्टाफ से कहा। और वाकई में उस शराबी को बाहर कर दिया गया। 

हालांकि वो कई शराबी नहीं था। वो थे बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी। जो उस वक्त तक जॉनी वॉकर नहीं बने थे। क्या था वो किस्सा? चलिए, जानते हैं।

ये तो हम सभी जानते हैं कि बलराज साहनी जी ने एक दिन बदरुद्दीन काज़ी को बस में देखा था। उन दिनों बदरुद्दीन बस कंडक्टर हुआ करते थे। 

और टिकट बनाते वक्त वो तरह-तरह की आवाज़ें निकालकर लोगों का मनोरंजन करते थे। उनका वही अंदाज़ बलराज साहनी जी को पसंद आ गया।

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Lesser Known Facts About Comedian Johnny Walker - Photo: Social Media

एक दिन बलराज साहनी बदरुद्दीन को अपने साथ लेकर पहुंच गए नवकेतन फिल्म्स के ऑफिस। वहां उन्होंने गुरूदत्त की ओर इशारा करते हुए बदरुद्दीन से कहा,"देखो, वो फिल्म का डायरेक्टर है। उसका नाम गुरूदत्त है। अगर तुमने उसे पटा लिया तो तुम्हारा काम बन गया समझो।"

बदरुद्दीन ने सोचा कि वो ऐसा क्या करें जिससे ये डायरेक्टर खुश हो जाए। वो फिल्मों में काम तो करना ही चाहते थे। चंद फिल्मों में वो क्राउड का हिस्सा बन भी चुके थे। 

लेकिन अब तो चांस था कि उन्हें फिल्म में कोई रोल मिल जाए। बदरुद्दीन को याद आया कि कुछ साल पहले वो माहिम के मेले में रात को साइकिल पर घूमते हुए तरह-तरह की आवाज़ें निकालकर सामान बेचते थे। और तब वो शराबी की नकल भी करते थे। 

बदरूद्दीन ने उसी शराबी की एक्टिंग करने का फैसला किया। वो शराबी की तरह लड़खड़ाते हुए नवकेतन फिल्म्स के ऑफिस में घुसे और गुरूदत्त जी को परेशान करने लगे।

थोड़ी देर तक तो गुरूदत्त उस अंजान शराबी को बर्दाश्त करते रहे। लेकिन आखिरकार उनके सब्र का बांध टूटा। उन्होंने नवकेतन पिक्चर्स के स्टाफ से कहा कि इस शराबी को यहां भगाओ। उठाकर बाहर फेंक दो। 

बदरुद्दीन को जब स्टाफ ने बाहर निकाल दिया तो बलराज साहनी उन्हें फिर से अपने साथ लेकर गुरूदत्त जी के पास गए और बोले,"गुरू, ये शराबी नहीं है। ये तो शराबी की एक्टिंग कर रहा था। अगर तुम्हें इसकी एक्टिंग किसी काम की लगी हो तो बाज़ी में इसे कोई रोल दे दो।" 

बदरुद्दीन की शराबी वाली एक्टिंग गुरूदत्त जी को वाकई पसंद आई। वो बदरुद्दीन से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा,"रोल तो है। लेकिन एक ही सीन का रोल है। जेल में देवानंद को एक शराबी चिट्ठी देता है। अगर वो रोल करना चाहो तो वो मैं तुम्हें दे सकता। हूं।" 

देवानंद जैसे बड़े स्टार के साथ काम करने का मौका भला कोई कैसे ठुकरा सकता था? तो बदरुद्दीन ने भी कहा कि वो बिल्कुल शराबी का रोल निभाएंगे। उन्हें खुशी होगी वो रोल निभाकर। 

और इस तरह गुरूदत्त साहब की बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म बाज़ी से बदरुद्दीन काज़ी का भी एक्टिंग का सफर शुरू हो गया। 

बाज़ी 1951 में रिलीज़ हुई थी। और ज़बरदस्त हिट रही। फिल्म में एक ही सीन में दिखे बदरुद्दीन को लोगों ने बड़ा पसंद किया। वास्तव में उसी सीन से बाज़ी फिल्म में एक बड़ा टर्निंग पॉइन्ट भी आता है। इसलिए दर्शकों की नज़रों में बदरुद्दीन चढ़ गए। उनकी चर्चा सिने लवर्स के बीच होने लगी। लोग नवकेतन के ऑफिस में फोन करके पूछने लगे कि वो शराबी कौन था? अब कौन सी फिल्म में दिखेगा वो? वगैरह वगैरह। 

नवकेतन फिल्म्स ने अगली फिल्म अनाउंस की थी टैक्सी ड्राइवर। और चूंकि देव आनंद जी भी बदरुद्दीन से बहुत खुश थे तो उन्होंने तय कर लिया था कि टैक्सी ड्राइवर में भी वो बदरू को किसी ना किसी रोल में ज़रूर लेंगे। 

दूसरी तरफ गुरूदत्त साहब ने अपनी खुद की फिल्म कंपनी शुरू की। उन्होंने आर पार फिल्म अनाउंस की। और उन्होंने भी बदरुद्दीन से कहा कि इस फिल्म में भी तुम काम करोगे। और इसमें तुम्हारा रोल अच्छा-खासा लंबा होगा।

गुरूदत्त ने तो ये भी कहा कि वो इस फिल्म में बदरुद्दीन के ऊपर एक गाना भी फिल्माएंगे। जीवन में अचानक से आए इतने बदलावों से बदरुद्दीन बड़े खुश थे। उन्हें अपना भविष्य दिखाई देने लगा था।

लेकिन दिक्कत ये थी कि फिल्म इंडस्ट्री में अभी तक उनका कोई नाम नहीं तय हुआ था। बाज़ी में वो दिखे ज़रूर थे। मगर उनका कोई नाम उस फिल्म में नहीं दिया गया था। 

यानि क्रेडिट्स में बदरुद्दीन का ज़िक्र भी नहीं किया गया था। इस बारे में कई लोगों ने सोचा कि बदरुद्दीन का फिल्मी नाम क्या होना चाहिए। 

बदरुद्दीन नहीं चाहते थे कि उनका असली नाम यानि बदरुद्दीन काज़ी फिल्मों में इस्तेमाल किया जाए। क्योंकि वो नाम फिल्मी नहीं, धार्मिक नाम ज़्यादा लगता था।

एक दिन देव साहब के बड़े भाई चेतन आनंद ने बदरुद्दीन से कहा कि तुम्हारे लिए ऐसे फोन्स बहुत आते हैं जिसमें लोग पूछते हैं कि वो शराबी कौन था। क्यों ना तुम कुछ ऐसा ही नाम रखो जो शराब से ही मिलता-जुलता हो। 

कुछ देर की माथापच्ची के बाद तय हुआ कि बदरुद्दीन का फिल्मी नाम होगा जॉनी वॉकर। वो नाम गुरूदत्त जी को भी पसंद आया। और खुद बदरुद्दीन को भी अच्छा लगा। और इस तरह बदरुद्दीन काज़ी बन गए जॉनी वॉकर। इस नाम से जो पहली फिल्म उनकी रिलीज़ हुई थी वो थी गुरूदत्त की आर पार। उसके बाद आई टैक्सी ड्राइवर। और वो दोनों फिल्में भी बहुत हिट रही थी। फिर तो बदरुद्दीन काज़ी उर्फ जॉनी वॉकर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 

जॉनी वॉकर जी का जन्म हुआ था 11 नवंबर 1926 को। जबकी 29 जुलाई 2003 को जॉनी साहब ये दुनिया छोड़ गए थे। इस लेख में हम जॉनी वॉकर जी के बारे में ऐसी ही कई और रोचक बातें जानेंगे।

और यकीन कीजिएगा साथियों, जॉनी वॉकर जी की ये कहानियां आपको बहुत पसंद आएंगी। हां, एक और बात। इन सभी कहानियों को जॉनी वॉकर जी के पुत्र व एक्टर नासिर खान जी ने अपने यूट्यूब चैनल के माध्यम से कही हैं। चलिए, जॉनी वॉकर साहब की अगली कहानी जानते हैं।

दिलीप कुमार की वो आखिरी कॉल

ट्रिंग-ट्रिंग। अचानक दिलीप कुमार के घर का फोन बजा। वो 29 जुलाई 2003 का दिन था। इत्तेफाक से फोन दिलीप साहब ने ही उठाया। उधर से आवाज़ आई,"साहब, मैं जॉनी वॉकर के घर से बोल रहा हूं।" 

ये सुनकर दिलीप साहब बड़े खुश हुए। बोले,"अरे वाह। आज मैं जॉनी वॉकर से मिलने आ ही रहा था। और लीजिए, पहले उनका फोन ही आ गया। ज़रा उनसे बात करवाईए।" उधर से जवाब मिला,"यूसुफ साहब, आपके दोस्त अल्लाह को प्यारे हो गए। वो अब नहीं रहे।" 

दिलीप कुमार का दिल बैठ गया। उन्हें बहुत अफसोस हुआ। पिछले कई महीनों से उन्होंने जॉनी वॉकर से मुलाकात नहीं की थी। किसी बात को लेकर दोनों के बीच मनमुटाव हो गया था। 

कुछ कॉमन दोस्तों ने दिलीप साहब और जॉनी वॉकर जी के बीच आई दूरियां खत्म कराने की कोशिश की थी। नतीजा, दोनों मिलने और बात करने को तैयार हो गए थे। पहल जॉनी वॉकर साहब ने की थी। दोनों फिर से फोन पर बात करने लगे। 

एक दिन जॉनी वॉकर जी ने फोन पर ही दिलीप साहब से कहा,"यूसुफ साहब। आपसे मिलने का बहुत दिल है। लेकिन तबियत साथ नहीं देती। क्यों ना आप ही किसी दिन मेरे घर आ जाएं।" 

दिलीप कुमार जी ने हामी भर दी और कहा कि जैसे ही उन्हें वक्त मिलेगा, वो तुरंत जॉनी साहब के घर आएंगे। लेकिन कई दिन गुज़र गए। 

दिलीप कुमार जॉनी साहब से मिलने उनके घर ना आ सके। और फिर उस दिन जॉनी वॉकर जी की मौत की खबर दिलीप साहब तक आई। 

कहते हैं कि दिलीप कुमार जी को ये बात बहुत कचोटती थी कि वो अपने दोस्त से आखिरी दफा मिलने उसके घर ना जा सके। कई इंटरव्यूज़ में दिलीप साहब ने ये मलाल ज़ाहिर किया था। 

खैर, अब तो दिलीप कुमार जी भी इस दुनिया में नहीं रहे। हो सकता है कि दूसरी दुनिया में दिलीप साहब ने जॉनी वॉकर जी से अफसोस ज़ाहिर किया हो। चलिए, अगली कहानी जानते हैं। 

चेन्नई में होने वाली घबराहट

साल 1996 के एक दिन की बात है। जॉनी वॉकर अपने बेटे नासिर खान के साथ चेन्नई जा रहे थे। वहां उन्हें चाची 420 फिल्म की शूटिंग करनी थी। जॉनी वॉकर जब प्लेन में थे तो बहुत डरे हुए थे। 

वो बार-बार अपने बेटे का हाथ पकड़कर घबराहट में उससे पूछते,"सब ठीक हो जाएगा ना नासिर? कुछ होगा तो नहीं?" नासिर ने जॉनी साहब को दिलासा देते हुए कहा,"कुछ नहीं होगा डैडी। सब पुरानी बातें हैं।"

 "तू नहीं जानता नासिर। तू नहीं जानता।" जॉनी साहब ने बेटे नासिर से कहा। तो क्या जॉनी वॉकर को प्लेन में डर लगता था? क्या उनके साथ प्लेन में कभी कुछ हुआ था जो उस दिन उन्हें प्लेन में बैठते हुए इतना डर लग रहा था? या कोई और ही बात थी? 

कहानी यहां से कुछ साल पीछे जाती है। ये उन दिनों की बात है जब जॉनी वॉकर अपने करियर के शिखर पर थे। उन दिनों जब साउथ फिल्म इंडस्ट्री के मेकर्स ने हिंदी फिल्में बनानी शुरू की तो वे हिंदी कलाकारों को शूटिंग के लिए चेन्नई ही बुलाते थे। उस ज़माने जॉनी वॉकर भी साउथ में बनी बहुत सारी हिंदी फिल्मों का हिस्सा थे। 

साठ के दशक की शुरुआत में वो एक फिल्म की शूटिंग के लिए जब चेन्नई, जो तब मद्रास हुआ करता था, वहां पहुंचे तो दो तीन दिन बाद ही उनके भतीजे की मौत हो गई। भतीजे की मौत की खबर मिली तो जॉनी साहब को शूटिंग छोड़कर वापस मुंबई आ आना पड़ा। 

कुछ महीनों बाद जॉनी वॉकर चेन्नई में ही किसी और फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। लेकिन तभी उन्हें खबर मिली कि उनके पिता का इंतकाल हो गया है। 

एक दफा फिर से जॉनी वॉकर जी को शूटिंग बीच में छोड़कर घर लौटना पड़ा। मगर जब कुछ महीनों बाद वो किसी दूसरी फिल्म की शूटिंग के लिए चेन्नई फिर से गए तो होटल पहुंचते ही उन्हें एक और बुरी खबर मिली। 

जॉनी साहब होटल के अपने कमरे में दाखिल ही हुए थे। उनका बैग भी अभी उनके हाथ में ही था कि कमरे में मौजूद टैलिफोन बज पड़ा। 

जॉनी साहब ने फोन उठाया। बैग उनके हाथ में ही था। फोन उठाकर जैसे ही जॉनी वॉकर ने हैलो बोला उधर से आवाज़ आई,"जॉनी, गुरूदत्त नहीं रहे।" 

वो 10 अक्टूबर 1964 का दिन था। गुरूदत्त साहब की मृत्यु की खबर से जॉनी सदमे में आ गए। गुरूदत्त उनके जिग्री दोस्त थे। उनकी मौत की खबर ने जॉनी वॉकर को बेहद दुखी कर दिया। 

वो फौरन होटल से निकले और टैक्सी पकड़कर एयरपोर्ट आ गए। उसके बाद जब जॉनी वॉकर मुंबई तो फिर उन्होंने कभी चेन्नई वापस ना जाने का फैसला कर लिया। 

उनके इस फैसले ने उनके करियर पर काफी बुरा असल डाला। क्योंकि उस दौर में साउथ में बनने वाली ज़्यादातर हिंदी फिल्में बड़े बजट की फिल्में होती थी। 

प्रोफेशनली जॉनी साहब को चेन्नई ना जाने की वजह से काफी नुकसान हुआ था। लेकिन उन्हें इस बात का डर था कि अगर वो चेन्नई फिर से गए तो पता नहीं क्या बुरी खबर उन्हें मिले। 

जॉनी वॉकर ने चेन्नई की फिल्में साइन करना बंद कर दी। कुछ फिल्में जो उन्होंने पहले से साइन की हुई थी उनके मेकर्स से जॉनी वॉकर ने कह दिया कि मैं वहां नहीं आऊंगा। आप बॉम्बे में ही शूटिंग कंप्लीट कर लो। 

सालों बाद उन्होंने जब कमल हासन की चाची 420 साइन की थी तब उन्हें नहीं पता था कि इस फिल्म की शूटिंग के लिए भी उन्हें चेन्नई ही जाना पड़ेगा। 

लेकिन चूंकि कॉन्ट्रैक्ट साइन कर चुके थे तो अब तो उन्हें चेन्नई जाना ही था। यही वजह है कि जब बेटे नासिर खान के साथ वो 1996 में वो चेन्नई जा रहे थे तो फ्लाइट में इतना ज़्यादा घबरा रहे थे। 

चाची 420 की एक और कहानी

अगली कहानी भी चाची 420 फिल्म से ही जुड़ी है। जब चाची 420 फिल्म की शूटिंग के लिए जॉनी वॉकर साहब अपने पुत्र नासिर खान के साथ चेन्नई गए थे तो चेन्नई में उन्हें एक फाइव स्टार होटल में ठहराया गया था। 

पहली रात होटल में ठहरने के बाद जॉनी वॉकर साहब ने अगले दिन सुबह ठीक सात बजे अपने बेटे नासिर को जगा दिया। नासिर ने हैरानी से उनसे पूछा,"क्या हुआ डैडी?" जॉनी वॉकर बोले,"सात बज गए हैं। हमें शूटिंग पर जाना है।" 

बेटे नासिर खान ने कहा,"लेकिन शिफ्ट तो 9 बजे की है। फिर इतनी जल्दी क्या है?" जॉनी साहब बोले,"नहीं नहीं। हमें वक्त पर पहुंचना है। फटाफट नाश्ता मंगा।" 

रूम सर्विस पर कॉल करके नाश्ता मंगाया गया। और फिर तैयार होकर आठ बजे जॉनी साहब ने नासिर से कहा कि फटाफट गाड़ी मंगा लो। 

नासिर ने फिर कहा कि इतनी जल्दी स्टूडियो जाकर हम क्या करेंगे। लेकिन जॉनी साहब उनको चुप करा दिया और फौरन गाड़ी बुलाने का ऑर्डर दिया। 

गाड़ी आई और 15 मिनट में ये लोग स्टूडियो पहुंच गए। स्टूडियो पहुंचते ही जॉनी साहब मेकअप रूम में घुस गए। पता चला अभी तो मेकअप वाला भी नहीं आया है। 

उन्होंने खुद ही अपना मेकअप करना शुरू कर दिया। और फिर पूरी तरह तैयार होकर ठीक 08:55 पर जॉनी साहब अपनी कुर्सी पर बैठ गए और बेटे नासिर से कहा कि डायरेक्टर को बता दो मैं आ गया हूं। 

नासिर खान दुविधा में आ गए। वो बताते तो किसे बताते। वहां तो कोई था ही नहीं। दरअसल, फिल्म के डायरेक्टर खुद कमल हासन साहब ही थे। और चूंकि उन्हें औरत का मेकअप लेना पड़ता था तो वो मेकअप लेने में उन्हें बहुत देर हो जाती थी। इसलिए अक्सर वो सेट पर बहुत देरी से पहुंचते थे। 

खैर, जब कमल हासन आए तो उन्हें पता चला कि जॉनी साहब आठ बजे से बैठे हैं। कमल हासन ने सोचा कि शायद उनके असिस्टेंट्स ने जॉनी वॉकर को गलती से जल्दी बुला लिया है। 

कमल हासन ने अपने असिस्टेंट्स की क्लास भी लगा दी। फिर उस दिन का शूट कंप्लीट कर लिया गया। जॉनी वॉकर अपने बेटे नासिर के साथ होटल वापस आ गए। 

अगले दिन उन्होंने फिर नासिर को सुबह 7 बजे जगा दिया। और फिर वही एक दिन पहले वाला सारा घटनाक्रम रिपीट हुआ। नासिर खान काफी हैरान थे। 

अगले दो-चार दिन भी जॉनी वॉकर जी ने ठीक वही किया। वो रोज़ सुबह नासिर को जगाते और नाश्ता करके ठीक आठ बजे होटल से निकल जाते। 

और 9:50-9:55 तक तैयार होकर अपनी कुर्सी पर बैठकर कहते कि डायरेक्टर को बता दो। मैं रेडी हूं। हारकर यूनिट के लोगों ने ही जॉनी वॉकर से कहा कि सर आपको कॉल टाइम दिया जाएगा। आप इतनी सुबह आने की परेशानी मत उठाईए। 

उस दिन जॉनी साहब के बेटे नासिर खान ने उनसे पूछ ही लिया कि आप क्यों रोज़ इतनी सुबह आ जाते हैं। जबकी आप भी देखते हैं कि शूटिंग देर से ही स्टार्ट होती है। 

तब जॉनी वॉकर बोले,"मुझे 9 बजे की शिफ्ट बताई गई है। तो ये मेरा फर्ज़ है कि मैं 9 बजे से पहले ही रेडी हो जाना है। मैंने आज तक ऐसे ही काम किया है। और मुझे यही आता है। मैं आगे भी ऐसे ही काम करूंगा।" 

चलिए, नैक्स्ट किस्सा जानते हैं। 

एक दफा जॉनी वॉकर के बेटे नासिर खान के पास किसी एड एजेंसी का फोन आया। नासिर खान ने बतौर मॉडल अपना करियर शुरू किया था। 

वो एड एजेंसी वाले नासिर को किसी एड में बतौर मॉडल साइन करना चाहते थे। जिस विज्ञापन के लिए वो एजेंसी नासिर को साइन करना चाहती थी उसकी शूटिंग मध्य प्रदेश में कहीं पर होनी थी। 

नासिर की पूरी बात हो गई। पैसे की डील भी फाइनल हो गई। लेकिन आखिर में उन्होंने नासिर से कहा कि ठीक है सर हम आपको ट्रेन की टिकट भेज देंगे। आप आ जाइएगा। 

ट्रेन का नाम सुनकर नासिर खान का माथा ठनका। उन्होंने कहा कि ट्रेन की टिकट क्यों। मुझे प्लेन की टिकट भेजिए। मैं ट्रेन से ट्रैवल नहीं करता। 

एड एजेंसी वालों ने कहा कि सर हमारे पास बजट की कमी है। फ्लाइट की टिकट बहुत ज़्यादा महंगी है। आपको ट्रेन से ही आना पड़ेगा। 

इस बात पर नासिर की फोन करने वाले एड एजेंसी के एग्ज़ीक्यूटिव से बहस हो गई। और गुस्से में नासिर ने फोन काट दिया। फिर नासिर जैसे ही घूमे उन्होंने देखा कि पीछे उनके पिता जॉनी वॉकर साहब खड़े हैं। 

जॉनी वॉकर ने बेटे नासिर खान को कुछ सेकेंड्स के लिए घूरा और फिर उससे से पूछा कि क्या हुआ। नासिर खान ने जब पूरा माजरा बताया तो जॉनी वॉकर उनसे बोले,"तू है कौन?" 

नासिर खान को यकीन नहीं हुआ कि उन्होंने क्या सुना था। उन्होंने पूछा,"क्या?" जॉनी वॉकर फिर से पूछा,"नासिर तू है कौन?" नासिर ने कहा कि आप क्या जानना चाहते हैं डैडी? 

तब जॉनी वॉकर बोले,"बेटा। काम मांगो। भीख मत मांगो। उनको लगता है कि तेरी हैसियत ट्रेन वाली ही है। तभी तो वो तुझे ट्रेन से बुला रहे हैं। मेहनत कर। नाम बना। 

इतना नाम बना कि बिना मांगे तुझे फ्लाइट की टिकट लोग भेंजे। पहले इकोनॉमी क्लास की आएगी। फिर बिजनेस क्लास की आएगी। और एक दिन फर्स्ट क्लास की भी आएगी।" उस दिन पिता जॉनी वॉकर ने जो सीख नासिर खान को दी थी वो उन्होंने हमेशा अपने साथ रखी। 

BEST की नौकरी कैसे मिली थी?

अगली कहानी है कि कैसे जॉनी वॉकर ने एक तरकीब भिड़ाकर हासिल की BEST की नौकरी। जी हां, एकदम सही पढ़ा आपने। हिंदी सिनेमा के महानतम कॉमेडियन्स में से एक जॉनी वॉकर ने BEST की नौकरी पाने के लिए एक जुगत लगाई थी। 

वो जुगत उन्हें मजबूरी में लगानी पड़ी थी। क्यों और क्या जुगत लगाकर जॉनी वॉकर को BEST की नौकरी मिली थी, चलिए इस किस्से में जानते हैं। तो इस किस्से की शुरुआत होती है जॉनी वॉकर के बचपन से। बचपन में जॉनी वॉकर की बांयी आंख में कुछ परेशानी आई। 

उनके माता-पिता उन्हें इलाके की डिस्पेंसरी में लेकर गए। लेकिन उस दिन डिस्पेंसरी में डॉक्टर था ही नहीं। वहां कपांउडर बैठा हुआ था। कंपाउंडर ने बद्रूद्दीन यानि जॉनी वॉकर की परेशानी सुनी और कहा कि मैं आंख में दवाई डाल देता हूं। दिक्कत ठीक हो जाएगी। 

कंपाउंडर ने उनकी आंख में दवाई तो डाली। लेकिन उसने गलती से आंख की जगह कान की दवाई जॉनी की आंख में डाल दी। जब उनकी आंख में जलन मची तो कंपाउंडर ने कहा कि घबराने की ज़रूरत नहीं है। दवाई से थोड़ी परेशानी तो होती है। तुम बेफिक्र होकर घर जाओ। 

दो-तीन दिनों के बाद जॉनी वॉकर की आंख में दिक्कत और ज़्यादा बढ़ गई। बांयी आंख से उन्हें धुंधला दिखाई दे रहा था। लेकिन उसका और प्रॉपर इलाज तब नहीं हो सका। 

बद्रूद्दीन जब बड़े हुए और उन्होंने BEST में बस कंडक्टर की नौकरी के अप्लाय किया तो उन्हें पता चला कि वहां मेडिकल टेस्ट होता है। तब उन्हें लगा कि उन्हें ये नौकरी नहीं मिलेगी। क्योंकि आंखों की जांच में वो तो वो फेल ही हो जाएंगे। 

पर चूंकि उस वक्त नौकरी की उन्हें बहुत ज़रूरत थी तो उनके दिमाग में एक तरकीब आई। मेडिकल जांच से एक दिन पहले वो सुबह जल्दी BEST के ऑफिस पहुंचे और मेडिकल रूम में जाकर आंखों के डॉक्टर की कुर्सी के पास लगे चार्ट को अच्छी तरह से याद कर लिया। 

और चूंकि ईश्वर ने जॉनी वॉकर को कमाल की याददाश्त तोहफे में दी थी तो अपनी दांयी आंख पर हाथ रखकर उन्होंने उस चार्ट में लिखे अंग्रेजी और हिंदी के सभी अक्षरों को अच्छी तरह से याद कर लिया। वो पूरा चार्ट उनके दिमाग में छप गया। 

अगले दिन जब वो मेडिकल टेस्ट के लिए पहुंचे और उनकी आंखों की जांच का वक्त आया तो डॉक्टर ने उनकी दोनों आंखों का टेस्ट शुरू किया। पहले डॉक्टर ने उनकी बांयी आंख एक हाथ से बंद कराई और चार्ट पढ़ने को कहा। 

दांयी आंख में तो कोई दिक्कत थी ही नहीं। इसलिए जॉनी ने बिना किसी परेशानी के तुरंत वो चार्ट पढ़ डाला। अब बारी आई बांयी आंख से वो चार्ट पढ़ने की। 

जॉनी वॉकर ने अपनी दांयी आंख बंद की और वो चार्ट जो एक दिन पहले वो रटकर गए थे वो एक सांस में पूरा पढ़ दिया। और इसमें काम आई उनकी शार्प मैमोरी यानि तेज याददाश्त। 

बांयी आंख से उन्हें कुछ भी नहीं दिखता था। लेकिन अपनी याददाश्त की मदद से जॉनी उस मेडिकल टेस्ट में पास हो गए। और इस तरह जॉनी वॉकर को BEST में बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई। जो उन्होंने दो सालों तक की थी।

आनंद फ़िल्म का क़िस्सा

ये वाला किस्सा भी आपको बहुत पसंद आएगा। ये किस्सा जुड़ा है आनंद फिल्म से। आनंद फिल्म का मुरारी याद है आपको? अरे वही जिसका असली नाम तो ईसा भाई सूरतवाला था। 

लेकिन राजेश खन्ना का किरदार आनंद उसे पहली मुलाकात में मुरारी कहकर पुकारता है। जी हां, अपने जॉनी वॉकर जी। 12 मार्च 1971 को आनंद रिलीज़ हुई थी। 

फिल्म के आखिर में जॉनी वॉकर यानि ईसा भाई आनंद से मिलने जाता है। ईसा भाई को नहीं पता कि आनंद को कैंसर हो गया है। ईसा भाई एक नाटक के लिए आनंद से मिलने आए हैं। 

यहां उन्हें बाबू मोशाय डॉक्टर भास्कर बनर्जी से पता चलता है कि आनंद को कैंसर हो गया है और वो आखिसी स्टेज पर है। ईसा भाई को बहुत दुख होता है। 

लेकिन फिर भी जब वो आनंद से मिलते हैं तो उसी गर्मजोशी से पेश आते हैं जैसे कि हमेशा आते हैं। यहां आनंद से वो हल्की-फुल्कि मज़ाकिया बातें करने की कोशिश करते हैं। 

लेकिन फिर खुद पर काबू नहीं रख पाते और बाहर आकर रोने लगते हैं। लेकिन रोते वाले उस सीन में जॉनी वॉकर यानि ईसा भाई सूरतवाला अपने मुंह को रुमा से छिपा लेता है। इस सीन से ही ये कहानी जुड़ी है। 

जब इस सीन की शूटिंग चल रही थी तो जॉनी वॉकर जी ने ऋषिकेश मुखर्जी साहब से कहा,"क्यों ना ऐसा हो कि मैं जब रोते हुए कमरे से बाहर निकलूं और बेंच पर बैठूं तो अपना मुंह रुमाल से ढककर रोऊं?" 

ऋषि दा ने जॉनी वॉकर जी से पूछा कि उन्हें ये आईडिया क्यों और कैसे आया। तो जॉनी वॉकर साहब बोले,"ये फिल्म का क्लाइमैक्स है। लोग ये सीन देखकर रो उठेंगे। लेकिन मुझे डर है कि मुझ जैसे कॉमेडियन को रोता देखकर वो कहीं हंस ना दें।" 

ये बात ऋषि दा को भी समझ में आई। उन्हें भी लगा कि जॉनी वॉकर एकदम सही कह रहे हैं। लोग उन्हें रोते देखकर हंस सकते हैं। 

उन्होंने जॉनी वॉकर की सलाह को मानते हुए सीन को ऐसे ही शूट किया। अगर आप अब कभी आनंद देखें तो इस सीन पर गौर कीजिएगा। आपको ये कहानी ज़रूर याद आएगी। 

एक डायलॉग जो आनंद में तीन बार सुनाई दिया था

अब बात करते हैं आनंद फिल्म के एक बड़े मशहूर डायलॉग के बारे में। "ज़िंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह। उसे ना तो आप बदल सकते हैं और ना मैं। हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं। जिनकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी हैं। कब कौन कैसे उठेगा, ये कोई नहीं बता सकता।"

ये आनंद फिल्म का डायलॉग  है। आनंद में ये डायलॉग तीन दफा बोला गया है। एक तो सबसे आखिर में। जब राजेश खन्ना जी के किरदार आनंद की मौत के बाद टेप रिकॉर्डर प्ले होता है तब। 

उससे पहले यही डायलॉग तब बोला जाता है जब आनंद और डॉक्टर भास्कर बनर्जी अपनी-अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करते हैं। 

लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये डायलॉग पहली दफा कब बोला जाता है? चलिए मैं बताता हूं। पहली दफा ये डायलॉग तब बोला जाता है जब जॉनी वॉकर साहब स्टेज पर अपने नाटक की प्रैक्टिस कर रहे होते हैं। और जॉनी वॉकर जी ही ये डायलॉग पहली दफा बोलते हैं। 

वैसे, यहां हमें ऋषि दा की तारीफ करनी चाहिए। एक ही डायलॉग को उन्होंने कितनी आराम से तीन दफा इस्तेमाल कर लिया। और तीनों सिचुएशन्स पर डायलॉग एकदम फिट बैठता है। 

पहली दफा कॉमेडी होती है। दूसरी दफा हालात एकदम नॉर्मल होते हैं। और आखिरी दफा तो तब ये डायलॉग आता है जब फिल्म देख रहा हर इंसान अपनी आंखों में आंसू लिए बैठा होता है। 

जॉनी वॉकर की शादी की कहानी

अभी जॉनी वॉकर साहब की शादी की बात करते है। जब जॉनी वॉकर ने नूरजहां जी को शादी के लिए प्रपोज़ किया था तो नूरजहां जी ने एक शर्त रख दी। 

उन्होने जॉनी साहब से कहा कि देखो जॉनी, अगर तुम मुझसे शादी करना चाहते हो तो तुम्हें सिगरेट पीना छोड़ना पड़ेगा। एकदम छोड़ना पड़ेगा। 

इत्तेफाक से जब इन दोनों की ये बातें हो रही थी तब भी जॉनी वॉकर सिगरेट ही पी रहे थे। उस ज़माने में वो बहुत सिगरेट पिया करते थे। 

लेकिन नूरजहां जी की बात सुनकर जॉनी वॉकर बोले,"बस इतनी सी बात? ठीक है, आज के बाद मैं सिगरेट को हाथ भी नहीं लगाऊंगा।" 

और उन्होंने फौरन अपने हाथ में मौजूद सिगरेट को फेंक दिया। जॉनी और नूरजहां जी के बेटे नासिर खान कहते हैं कि उस दिन के बाद फिर कभी जॉनी वॉकर साहब ने सिगरेट को हाथ नहीं लगाया। 

नूरजहां जी से जॉनी की मुलाकात गुरूदत्त साहब की फिल्म आर पार के सेट पर हुई थी। जॉनी इस फिल्म में एक बड़े अहम किरदार में थे। 

और नूरजहां जी ने उनकी प्रेमिका का किरदार निभाया था। दोनों पर एक गीत भी पिक्चराइज़ किया गया था जिसके बोल थे 'अरे ना ना ना ना, तौबा तौबा।' 

रील लाइफ का रोमांस रियल लाइफ में कब तब्दील हो गया ये पता ही नहीं चल सका। आर पार फिल्म में नूरजहां जी की बड़ी बहन एक्ट्रेस शकीला ने भी एक बड़ा ही अहम किरदार निभाया था। 

बात अगर नूरजहां जी के बारे में हो तो बताना ज़रूरी है कि फिल्म इंडस्ट्री में नूरजहां जी नूर के नाम से मशहूर थी। कई लोग उन्हें नूर महल के नाम से भी जानते हैं। 

नूर जी ने कुछ फिल्मों में बतौर बाल कलाकार भी काम किया था। उनमें से एक थी 1946 में आई अनमोल घड़ी। नूर जी ने उस फिल्म में मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां के बचपन का किरदार निभाया था।

और चूंकी इनका नाम भी नूरजहां ही था तो उस फिल्म के मेकर्स ने ही इनका नाम नूरजहां से बदलक नूर महल कर दिया था। बाद में ये सिर्फ नूर नाम से पहचानी गई। 

शम्मी-गीता की शादी से जॉनी-नूर का कनैक्शन

एक और कहानी जानिए। और ये कहानी भी आपको पसंद आने वाली है गारंटी है। जॉनी वॉकर साहब की शादी तब हुई ही थी। शम्मी कपूर भी तब गीता बाली जी संग शादी करने का फैसला कर चुके थे।

जॉनी वॉकर जी की पत्नी नूरजहां एक्ट्रेस रह चुकी थी। 17 अगस्त 1955 को जॉनी वॉकर और नूरजहां की शादी हुई थी। इस शादी में शम्मी कपूर व गीता बालपी भी शरीक हुए थे। 

शम्मी कपूर ने जॉनी वॉकर जी से कहा कि जॉनी तुमने और नूर ने तो शादी कर ली है। अब मेरी और गीता की शादी भी करा दो। दरअसल, शम्मी कपूर और गीता बाली बिना अपने घरवालों को बताए शादी करना चाहते थे। 

स्थिति ये थी कि शम्मी कपूर के माता-पिता उस वक्त भोपाल में थे। शम्मी जी के छोटे भाई शशि कपूर भी उनके ही साथ थे। वो वहां एक नाटक करने गए थे। 

और गीता बाली जी नहीं चाहती थी कि उनके घरवालों को पता चले कि वो शम्मी जी से शादी कर रही हैं। शायद वो खुश ना होते। 

खैर, जब शम्मी कपूर ने जॉनी वॉकर से अपनी और गीता बाली की शादी कराने को कहा तो जॉनी साहब बड़े हैरान हुए। उन्होंने शम्मी जी से कहा कि इतनी रात को तुम दोनों की शादी कैसे होगी भाई? 

जॉनी वॉकर ने आगे शम्मी जी से कहा,"मैं तो मुसलमान हूं। मस्ज़िद में शादी कर ली। तुम्हें तो किसी मंदिर में शादी करनी होगी।" 

शम्मी कपूर जी का गीता जी से शादी करने का उतावलापन देखिए, कुछ ही दिन बाद वो गीता बाली जी को साथ लेकर एक मंदिर पहुंचे और वहां के पुजारी से कहा कि हम दोनों शादी करना चाहते हैं।

मगर पुजारी जी ने कहा कि भई इस वक्त तो मंदिर बंद हो चुका है। आप सुबह आ जाईए। आपकी शादी करा दी जाएगी। फिर अगली सुबह शम्मी जी व गीता बाली जी मंदिर पहुंचे। और उनकी शादी हो भी गई। 

मंदिर में शादी के दौरान शम्मी जी व गीता बाली जी के पास सिंदूर नहीं था। गीता बाली जी ने अपनी एक लाल लिपस्टिक निकाली और शम्मी जी से कहा,"आप मेरी मांग में ये लिपस्टिक ही लगा दीजिएगा।" शम्मी जी ने वही किया। और आखिरकार इन दोनों की शादी हो गई। 

शादी करने के बाद शम्मी कपूर गीता बाली जी को साथ लेकर अपने घर गए। उस वक्त घर पर उनके दादा दीवान बशेश्वरनाथ कपूर ही थे। शम्मी कपूर ने उन्हें जगाया और कहा,"बड़े पापा। मैं आपकी बहू लेकर आया हूं।" 

दीवान बशेश्वरनाथ जी ने हैरान होते हुए शम्मी से कहा,"उल्लू दे पट्ठे। तू शादी करके आया है?" उसके बाद शम्मी जी के दादा उन पर भड़के नहीं। बल्कि उन्होंने इन दोनों को अपना आशीर्वाद दिया। 

फिर शम्मी कपूर ने अपने बड़े भाई राज कपूर व भाभी को भी फोन करके अपनी शादी की जानकारी दी। राज कपूर तब एक दूसरे घर में रहते थे। 

उन्हें फोन करने के बाद शम्मी कपूर ने भोपाल अपने पिता को फोन लगाया। उन्हें भी अपनी शादी की खबर दी। हैरत तो तब पृथ्वीराज कपूर जी को बहुत हुई थी। लेकिन उन्होंने भी गीता बाली को अपनी बहू के तौर पर स्वीकार कर लिया। 

इस तरह अपने दोस्त जॉनी वॉकर जी की शादी के 1 सप्ताह बाद यानि 24 अगस्त 1955 को शम्मी कपूर जी ने अपनी प्रेमिका व उस वक्त की नामी एक्ट्रेस गीता बाली से शादी कर ली। 

बाद में इन दोनों की शादी का जश्न बहुत धूमधाम से मनाया गया। ये जो तस्वीर आप इस पोस्ट के साथ देख रहे हैं वो उसी जश्न की तस्वीर है। और शम्मी जी के दोस्त जॉनी वॉकर अपनी पत्नी नूरजहां संग भी उस जश्न में शामिल होने आए थे। 

जॉनी जी से घबरा भी गए थे शम्मी जी

अगली कहानी की तरफ बढ़ते हैं जो कि जॉनी वॉकर और शम्मी कपूर से ही रिलेटेड है। शम्मी कपूर के लिए उनके करियर के शुरुआती साल कतई आसान नहीं थे। 

भले ही उनके पिता पृथ्वीराज कपूर और बड़े भाई राज कपूर स्टार थे। लेकिन उन्हें सफलता के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। उनकी बैक टू बैक 19 फिल्में फ्लॉप हो गई थी। 

और एक वक्त वो आ चुका था जब शम्मी कपूर ने प्लानिंग कर ली थी कि वो दार्जिलिंग के एक टी-एस्टेट में मैनेजरी करेंगे। यानि फिल्म इंडस्ट्री छोड़ देंगे। 

दूसरी तरफ जिस उसी दौरान जॉनी वॉकर तेज़ी से सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चले जा रहे थे। साल 1956 में आई छूमंतर नामक फिल्म में तो जॉनी वॉकर को लीड रोल दिया गया था। और वो फिल्म हिट भी रही थी। 

शम्मी कपूर जी की किस्मत बदली साल 1957 में। उस साल आई नासिर हुसैन की फिल्म 'तुमसा नहीं देखा' ने ना सिर्फ शम्मी जी को सफलता का स्वाद चखाया। बल्कि स्टारडम भी दिया। 

साल 1958 में जॉनी वॉकर और शम्मी कपूर की एक फिल्म आई जिसका नाम था मुजरिम। फिर ये दोनों दिखे 1960 में आई बसंत में। इन फिल्मों में काम करने के दौरान जॉनी वॉकर संग शम्मी कपूर की बहुत बढ़िया दोस्ती हो गई। 

लेकिन शम्मी कपूर को ये भी अहसास हो गया था कि जिस फिल्म में जॉनी वॉकर होते हैं उसमें हीरो से ज़्यादा लोग जॉनी वॉकर को देखना पसंद करते हैं। 

जॉनी वॉकर साहब के पुत्र नासिर खान अपने एक यूट्यूब वीडियो के माध्यम से कहते हैं कि शम्मी कपूर साहब ने कुछ प्रोड्यूसर्स से रिक्वेस्ट की थी कि उनकी फिल्मों में जॉनी वॉकर साहब को ना लिया जाए। 

क्योंकि अगर जॉनी वॉकर फिल्म में होंगे तो फिर उन्हें कोई देखना पसंद नहीं करेगा। सारा क्रेडिट जॉनी वॉकर ले जाएंगे। यहीं से शम्मी कपूर साहब की फिल्मों में बतौर कॉमेडियन राजेंद्र नाथ जी नज़र आने शुरू हो गए। 

शम्मी कपूर प्रोड्यूसर्स से कहा करते थे कि जॉनी वॉकर जी मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं। मुझे उनसे कोई ईर्ष्या नहीं है। लेकिन फिल्म में उनकी मौजूदगी मेरे लिए नुकसानदायक है। 

तो साथियों, जॉनी वॉकर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के वो पहले कॉमेडियन थे जिनके साथ स्टार लोग भी काम करने से घबराते थे। स्टार्स को डर होता था कि जॉनी वॉकर की प्रज़ेंस में उनकी वेल्यू फिल्म में कम हो जाएगी। 

बाद में ऐसा ही रुतबा सिर्फ एक कॉमेडियन को ही मिल सका। वो थे महमूद साहब। महमूद साहब के साथ काम करने में भी कई स्टार्स के पसीने छूट जाते थे। 

नया दौर फ़िल्म में चुना जाना

जॉनी वॉकर साहब का एक और किस्सा भी जानिए। ये किस्सा फिल्म नया दौर की कास्टिंग के दौरान का है। दिलीप कुमार चाहते थे कि नया दौर में उनके बचपन के दोस्त मुकरी को बतौर कॉमेडियन कास्ट किया जाए। 

मगर बी.आर.चोपड़ा साहब ने जॉनी वॉकर को कास्ट किया। क्योंकि जो इमेज अपने दिमाग में उन्होंने अपनी फिल्म के कॉमेडियन के तौर पर सोची थी उसमें जॉनी वॉकर ही फिट बैठ रहे थे। 

अगर आपने नया दौर फिल्म देखी होगी तो आपको याद होगा कि जॉनी वॉकर साहब की एंट्री जब होती है तो फिल्म एक अलग ही पेस पकड़ लेती है। 

उस वक्त सिनेमाघरों में जो लोग नया दौर देख रहे थे, वो जॉनी वॉकर के सीन्स पर तालियां बजा रहे थे। सीटियां मार रहे थे। उस फिल्म में जॉनी वॉकर पर एक गाना भी पिक्चराइज़्ड किया गया था जिसके बोल थे 'मैं बंबई का बाबू नाम मेरा मस्ताना।' वो गाना रफी साहब ने गाया था। 

प्यासा फ़िल्म में जॉनी के काम करने की ज़बरदस्त कहानी

"सुन सुन सुन। अरे बेटा सुन। इस चंपी में बड़े-बड़े गुण। लाख दुखों की एक दवा है क्यों ना आज़माए। काहे घबराए. काहे घबराए।" 

साथियों अब हम जानेंगे कैसे प्यासा जैसी डार्क फिल्म में जॉनी वॉकर साहब को ये मस्तीभरा गीत मिला था। और ये किस्सा आपको भी पसंद आएगा। गारंटी है एकदम। 

तो कहानी की शुरुआत होती है इस बात से कि ना तो इस गाने की कोई प्लानिंग थी। और ना ही ये तय था कि जॉनी वॉकर प्यासा फिल्म में होंगे। 

वैसे, गुरूदत्त चाहते तो थे कि श्याम वाला कैरेक्टर जॉनी वॉकर से कराया जाए। लेकिन अंत में वो ये भी समझ गए कि वो किरदार जॉनी वॉकर की शख्सियत के एकदम उलट है। वो आखिर में जाकर निगेटिव हो जाएगा। और लोग उसमें जॉनी वॉकर को पसंद नहीं करेंगे। 

एक दिन गुरूदत्त ने लेखक अबरार अल्वी से कहा कि तुम इस फिल्म में जॉनी वॉकर के लिए कोई कैरेक्टर डेवलप करो। अबरार अल्वी ने साफ इन्कार कर दिया। 

अबरार बोले,"प्यासा इतनी इटेंस फिल्म है। इसकी थीम इतनी डार्क है। इसमें भला जॉनी वॉकर को कैसे एडजस्ट किया जाएगा।" मगर गुरूदत्त नहीं माने। 

गुरूदत्त कई दिनों तक अबरार अल्वी से इसी बारे में चर्चा करते रहे कि जॉनी को कैसे इस फिल्म में लाया जा सकता है। 

वो जब भी अबरार अल्वी से जॉनी वॉकर के बारे में बात करते, अबरार अल्वी उन्हें यही जवाब देते कि प्यासा एक सीरियस फिल्म है। इसमें मस्ती-मज़ाक का कोई स्कोप है ही नहीं। और गुरूदत्त हर दफा उनसे यही कहते थे कि कुछ ना कुछ तो हो ही सकता है। 

एक दफा तो गुरूदत्त और अबरार अल्वी के बीच जॉनी वॉकर को लेकर बहस इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि गुरूदत्त जी ने साफ कह दिया कि अगर जॉनी वॉकर फिल्म में नहीं होगा तो मैं ये फिल्म बनाऊंगा ही नहीं। 

वहीं अबरार अल्वी ने भी कह दिया कि जॉनी वॉकर के लिए मैं ये कहानी खराब नहीं होने दूंगा। यानि मामला एकदम टेंश हो गया। 

एक दिन प्यासा के ही एक सीन की शूटिंग के लिए गुरूदत्त, अबरार अल्वी व जॉनी वॉकर तथा अन्य लोग कलकत्ता गए थे। 

कलकत्ता भी फ्री टाइम में इसी बात का ज़िक्र चलता रहा कि जॉनी वॉकर को प्यासा में लिया जा सकता है कि नहीं। एक दिन गुरूदत्त ने अबरार अल्वी और जॉनी वॉकर को साथ लिया और होटल के सामने मौजूद विक्टोरिया गार्डन में जाकर आराम से बैठने का फैसला किया। 

उस दिन तय किया गया था कि आज काम के बारे में कोई बात नहीं की जाएगी। आज सिर्फ आराम किया जाएगा। चाय वगैरह पी जाएगी। और पुचके का स्वाद लिया जाएगा। 

विक्टोरिया गार्डन की एक दुकान पर ये तीनों पुचके खा ही रहे थे कि तभी गुरूदत्त साहब को पीछे से आती एक आवाज़ सुनाई दी।,"मालिश। तेल चंपीईईई।" गुरूदत्त ने उस आवाज़ की तरफ देखा। उन्हें एक मालिश वाला ये आवाज़ लगाते दिखा। 

फिर उन्होंने अबरार अल्वी से कहा,"अबरार। तुम कहते हो ना कि ये फिल्म बहुत हैवी है। ये इतनी इटेंस है कि इसमें कॉमेडी डाली ही नहीं जा सकती। तो कहीं ऐसा ना हो कि लोगों को ये फिल्म कतई बोझिल लगने लगे। इसलिए तुम फिल्म में एक चंपी वाले का रोल डालो। ये रोल जॉनी करेगा। और ये बीच-बीच में लोगों की टेंशन दूर करता रहेगा।"

यहां ये बात भी आपको बता दूं कि अभिनेता बनने से पहले जॉनी वॉकर बस कंडक्टर थे, ये तो सभी जानते हैं। लेकिन उससे भी पहले जॉनी वॉकर मुंबई के माहिम इलाके में रात में लगने वाले मेले में साइकिल पर विभिन्न प्रकार का सामान बेचा करते थे। 

और उस वक्त वो तरह-तरह की आवाज़ें निकाला करते थे। गुरूदत्त इस बात से वाकिफ थे। तो उन्होंने उस दिन कलकत्ता में जॉनी वॉकर से कहा कि तुम ऐसे ही आवाज़ बदलकर इस मालिश वाले की नकल करने की कोशिश करो। 

फाइनली अबरार अल्वी को भी गुरूदत्त जी के इस आइडिया से कन्विंस होना पड़ा। और आखिरकार उन्होंने प्यासा के लिए अब्दुल सत्तार का किरदार लिखा। और उस किरदार के लिए एक पूरा गाना भी साहिर लुधियानवी जी से लिखवाया गया। 

गाने को रफी साहब ने अपनी आवाज़ दी। और एक कालजयी गाना बना,"सर जो तेरा चकराए। या दिल डूबा जाए। आजा प्यारे पास हमारे काहे घबराए। काहे घबराए।" और ये गीत जॉनी वॉकर साहब की पहचान बन गया। 

एक लास्ट बात और। इस गीत का वीडियो देखने पर हमें लगता है कि ये मानो कलकत्ता के विक्टोरिया गार्डन में ही फिल्माया गया हो। लेकिन वास्तव में ये गीत बॉम्बे में ही कलकत्ता के विक्टोरिया गार्डन जैसा दिखने वाला सेट लगाकर फिल्माया गया था। 

एक-एक स्ट्रीट लाइट, बेंच और फैंसिंग का ध्यान बड़ी बारीकी से रखा गया था इस सेट का निर्माण करते वक्त। ताकि कोई ये अंदाज़ा ना लगा सके कि ये गीत विक्टोरिया गार्डन में नहीं, कहीं और सूट हुआ है।

जब मुकरी से बदल गए जॉनी वॉकर के दांत

जॉनी वॉकर साहब का ये रोचक किस्सा भी जान लीजिए। बुढ़ापे में जॉनी वॉकर और मुकरी, दोनों के दांत गिर गए थे। और दोनों को डेंचर पहनना पड़ता था। 

एक दफा दिलीप कुमार के साथ जॉनी वॉकर और मुकरी, दोनों किसी नेता के चुनाव प्रचार में पहुंचे। रात को उन्हें एक होटल में ठहराया गया। दिलीप कुमार उस रात जल्दी सोने चले गए। 

मुकरी और जॉनी वॉकर बैठे बातें कर रहे थे। इनके एक दोस्त, यूसुफ लकड़ावाला इनके साथ थे। यूसुफ लकड़ावाला ने उस दिन इनके साथ एक प्रैंक कर दिया। 

दरअसल, रात को जब ये दोनों अपने डेंचर निकालकर बातें कर रहे थे तो यूसुफ लकड़ावाला ने चुपके से इनके डेंचर आपस में बदल दिए। 

मुकरी के डेंचर साइज़ में ज़रा छोटे थे। सुबह जॉनी वॉकर मुकरी से पहले जाग गए। उन्होंने अपने डेंचर पहनने की कोशिश की। लेकिन वो डेंचर उनके मुंह में फिट हो ही नहीं रहे थे। 

होते भी कैसे? वो तो मुकरी के डेंचर थे। उस दिन दो घंटे तक जॉनी वॉकर वो डेंचर अपने मुंह में फिट करने की कोशिश करते रहे। 

फाइनली जब मुकरी जगे और उन्होंने जॉनी वॉकर से कहा कि जाने क्यों आज उनका डेंचर ढीला आ रहा है तो जॉनी को समझ में आया कि कुछ लफड़ा है। उन्होंने मुकरी से वो डेंचर लिया और पहना। चूंकि वो उनका ही डेंचर था तो फौरन फिट हो गया। 

फिर उन्होंने मुकरी साहब को वो डेंचर पहनने को दिया जिसके साथ वो सुबह से माथापच्ची कर रहे थे। मुकरी साहब का डेंचर भी उनके मुंह में फिट हो गया। 

वो ये तो समझ गए कि उनके डेंचर आपस में बदल गए थे। लेकिन बदले कैसे थे, ये उन्हें अभी समझ नहीं आया था। और जब जॉनी वॉकर ने यूसुफ लकड़ावाला से पूछने के लिए उनकी तरफ देखा तो यूसुफ लकड़ावाला अपनी हंसी पर काबू ना रख सके। 

जॉनी वॉकर समझ गए कि ये यूसुफ की ही शरारत है। वो ज़ोर से हंसे और उन्हें पीटने उनके पीछे दौड़े। फिर जब उन्होंने मुकरी साहब को पूरा मामला बताया तो मुकरी भी ज़ोर-ज़ोर से हंसे। 

आखिरी वक्त पर भी खुद्दारी नहीं छोड़ी जॉनी साहब ने

आखिर में एक छोटा सा किस्सा और। ये किस्सा भी यूसुफ लकड़ावाला ने एक इंटरव्यू में बताया था। उनके मुताबिक, मृत्यु से कुछ साल पहले जॉनी वॉकर ने उनसे ढाई लाख रुपए उधार लिए थे। 

किन्हीं वजहों से वो तय समय पर यूसुफ लकड़ावाला को उधार की वो रकम लौटा ना सके। लेकिन अपनी मृत्यु से छह महीने पहले एक दिन यूसुफ लकड़ावाला के पास जॉनी वॉकर का फोन आया। उन्होंने यूसुफ लकड़ावाला को घर आने को कहा।  

यूसुफ जब उनके घर पहुंचे तो ढाई लाख रुपए उनकी तरफ बढ़ाते हुए जॉनी वॉकर ने कहा कि मरने से पहले हिसाब-किताब क्लीयर कर देते हैं। 

जॉनी साहब पैसे लौटाने में हुई देरी पर यूसुफ लकड़ावाला से अफसोस भी जताया था। यूसुफ लकड़ावाला को वो ढाई लाख रुपए थमाने के बाद जॉनी वॉकर बोले कि अब वो खुश हैं। उन्हें सुकून रहेगा कि मरने से पहले उन पर किसी का कर्ज़ नहीं रहा। 

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