Sanjeev Kumar के Struggle की दास्तान | सफेद कुर्ते पाजामे ने कराया बहुत नुकसान

Sanjeev Kumar. भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के सबसे संजीदा अभिनेताओं में से एक। कॉमेडी हो, रोमांस हो, एक्शन हो, या फिर हो धीर-गंभीर किरदार, संजीव कुमार हर किरदार में गहराई से उतरकर उसे जीवंत बना देते थे। 

लेकिन किरदारों को जीवंत करने की काबिलियत तक पहुंचने का संजीव कुमार साहब का सफर आसान नहीं था। कड़े संघर्ष के बाद संजीव कुमार ने वो मुकाम हासिल किया था जिसका ख्वाब दुनिया का हर अभिनेता देखता है। 

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Sanjeev Kumar Struggle - Photo: Social Media

Harihar Jethalal Jariwala का Sanjeev Kumar बनने का सफर आसान नहीं था। इस सफर में वो फासला भी शुमार होता है जो Sanjeev Kumar aka Hari Bhai ने पैदल ही पूरा किया था। 

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दो जोड़ी कुर्ता पजामा में किया संघर्ष

शुरुआती दिनों में हरी भाई डायरेक्टर्स-प्रोड्यूसर्स से मिलने चेंबूर रेलवे स्टेशन से आरके स्टूडियो तक, भूलेश्वर से महालक्ष्मी में मौजूद फेमस स्टूडियो तक। और अंधेरी रेलवे स्टेशन से मोहन स्टूडियो तक पैदल ही जाया करते थे। 

यूं तो हरी भाई की मां शांताबेन कुछ पैसों से उनकी मदद करती रहती थी। लेकिन वो मदद उतनी नहीं थी कि हरी भाई बस या टैक्सी के किराए में उसे खर्च कर दें। 

चुनौतियां कितनी ज़्यादा थी इसका अंदाज़ा ऐसे लगाया जा सकता है कि हरी भाई के पास कपड़े खरीदने तक के पैसे नहीं हुआ करते थे। उनके पास दो जोड़ी सफेद कुर्ते पाजामे थे। जिन्हें वो हर रात धोया करते थे। 

ताकि अगले दिन उन्हें पहनकर वो डायरेक्टर-प्रोड्यूसर्स से काम मांगने जा सकें। वैसे उस ज़माने में भी हीरो बनने का ख्वाब देखने वाले एक्टर्स काम मांगने कुर्ता-पजामा पहनकर किसी डायरेक्टर-प्रोड्यूसर के ऑफिस में नहीें जाते थे। लेकिन संजीव कुमार जाते थे। उनके पास और कोई चारा भी तो नहीं था।

यूं किया पहली दफा कैमरा फेस

साल 1960 में फिल्मालय प्रोडक्शन हाउस ने एक फिल्म बनाने का ऐलान किया। और उन्होंने फिल्म में अपने ही स्कूल यानि फिल्मालय एक्टिंग स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स को भी छोटे-छोटे रोल्स के लिए कास्ट किया। 

वो फिल्म थी 'हम हिंदुस्तानी' जिसमें सुनील दत्त और आशा पारेख लीड रोल में थे। और चूंकि हरी भाई भी फिल्मालय एक्टिंग स्कूल के स्टूडेंट थे तो उन्हें भी उस फिल्म में पुलिस इंस्पैक्टर के एक छोटे से रोल के लिए कास्ट कर लिया गया। 

रोल छोटा था। लेकिन उसके बदले पैसे मिल रहे थे। शायद इसी वजह से हरी भाई ने वो रोल तुरंत स्वीकार कर लिया था। 12 रुपए प्रति शिफ्ट मेहनताना तय हुआ। और ये पहला मौका था जब हरी भाई ने कैमरा फेस किया था। 

लंबा चला बदनसीबी का दौर

'हम हिंदुस्तानी' के बाद हरी भाई उर्फ संजीव कुमार को पहली दफा इम्तियाज़ खान की तरफ से एक फिल्म में लीड हीरो का रोल ऑफर हुआ था। उस फिल्म की कहानी कुछ यूं है कि इम्तियाज़ खान, जो अमजद खान के बड़े भाई थे, वो नामी डायरेक्टर के.आसिफ के साथ बतौर असिस्टेंट उस वक्त काम कर रहे थे जब के.आसिफ 'लव एंड गॉड' फिल्म बना रहे थे।

उसी वक्त इम्तियाज़ खान को ज़िंदगी की राहें नाम की एक फिल्म डायरेक्ट करने का ऑफर मिला। दरअसल, पहले उस फिल्म को कोई और डायरेक्ट कर रहा था। लेकिन प्रोड्यूसर से विवाद होने की वजह से उस डायरेक्टर ने 'ज़िंदगी की राहें' नाम की वो फिल्म छोड़ दी। उस वक्त संजय खान फिल्म के लीड हीरो थे। 

लेकिन चूंकि वो डायरेक्टर संजय खान का दोस्त था तो उसके फिल्म छोड़ने के बाद संजय खान ने भी उस फिल्म से खुद को अलग कर लिया। इस पूरे घटनाक्रम के बाद ही प्रोड्यूसर ने इम्तियाज़ खान को वो फिल्म डायरेक्ट करने का ऑफर दिया था। और साथ ही साथ ये ज़िम्मेदारी भी दे दी कि अब इम्तियाज़ को ही इस फिल्म के लिए हीरो भी ढूंढना होगा। 

कुछ दिनों तक तो इम्तियाज़ खान हीरो की तलाश में लगे रहे। लेकिन जब उन्हें कोई परफेक्ट फेस नहीं मिला तो वो निराश हो गए। तब इम्तियाज़ खान के छोटे भाई अमजद खान ने उन्हें हरी जरीवाला का नाम सुझाया। अमजद खान और हरी कुछ नाटकों में काम कर चुके थे। और अमजद खान जानते थे कि हरी एक बेहतरीन एक्टर है। 

भाई की सलाह पर इम्तियाज खान हरी से मिले। उन्होंने हरी को फिल्म में बतौर हीरो काम करने का ऑफर दिया। हरी भाई तो इसी मौके की तलाश में कब से धक्के खा रहे थे। सो उन्होंने तुरंत इम्तियाज़ खान का वो ऑफर अक्सेप्ट कर लिया। लेकिन हाय रे किस्मत। 

हरी भाई की बदनसीबी अभी खत्म नहीं हुई थी। फिल्म के प्रोड्यूसर और फाइनेंसर के बीच किसी बात को लेकर क्लेश हो गया। और वो फिल्म बंद हो गई। हरी भाई फिर से ऑफिस दर ऑफिस काम की तलाश में भटकने पर मजबूर हो गए।

ये सब भी देखा Sanjeev Kumar ने

एक दिन हरी भाई को पता चला कि वी शांताराम अपनी नई फिल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' के लिए किसी नए हीरो की तलाश में हैं। बस फिर क्या था, हरी भाई पहुंच गए वी शांताराम से मिलने। 

लेकिन जब वी शांताराम ने हरी भाई को देखा तो वो हैरान रह गए। दरअसल, हरी भाई वी शांताराम से मिलने भी अपना सफेद कुर्ता पजामा पहनकर ही गए थे।

और वी शांताराम यकीन नहीं कर पाए कि ये आदमी जो कुर्ता-पजामा पहनकर आया है, ये उनकी फिल्म का हीरो बनना चाहता है। भला ये आदमी हीरो बनने का सोच भी कैसे सकता है। 

यानि नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात। वी शांताराम ने हरी भाई को फिल्म में नहीं लिया। उन्होंने जितेंद्र को अपनी फिल्म का हीरो चुना। और इस तरह 'गीत गाया पत्थरों ने'(1964) जितेंद्र साहब की डेब्यू फिल्म बनी। 

हरी भाई का संघर्ष जारी रहा। इस बीच उन्हें कुछ फिल्मों में छोटे-मोटे रोल्स निभाने के ऑफर मिलते रहे। जिन्हें वो पैसों की खातिर स्वीकार भी करते रहे। 

जैसे कि आर.के.नय्यर की 'आओ प्यार करें'(1964) जिसमें जॉय मुखर्जी और सायरा बानो मुख्य भूमिकाओं में थे। जबकी हरी भाई जॉय मुखर्जी के दोस्त के रोल में थे। उसी फिल्म में मैक मोहन साहब ने भी हीरो के दोस्त का रोल निभाया था। 

यानि मैक मोहन और संजीव कुमार भी उस फिल्म में दोस्त ही थे। और इन दोनों को 125 रुपए महीना का मेहनताना मिलना तय हुआ। हरी भाई का रोल उस फिल्म में छोटा ज़रूर था। 

लेकिन था प्रभावशाली। शूटिंग के वक्त उनके छह क्लॉज़-अप शॉट्स लिए गए थे। मगर फाइनल एडिटिंग के बाद फिल्म में बचे महज़ दो। और उन दो शॉट्स में भी हरी भाई ने दिखा दिया था कि वो फिल्म इंडस्ट्री में लंबी रेस का घोड़ा बनने आए हैं।

यूं हरीभाई बने संजय कुमार

आप लोगों ने गौर किया होगा कि अब तक मैंने संजीव कुमार जी को संजीव कुमार कम और हरी भाई ज़्यादा कहा है। और ऐसा करने की मेरी एक वजह है। 

दरअसल, पहली फिल्म 'हम हिंदुस्तानी' में हरी भाई का नाम क्रेडिट लिस्ट में था ही नहीं। उस ज़माने में ट्रेंड था कि बड़े-बड़े स्टार्स अपने नाम के साथ कुमार लगाते थे। 

इसलिए हरी भाई को लगता था कि उन्हें भी कोई ऐसा ही नाम अपने लिए सोचना पड़ेगा जो फिल्मों के हिसाब से अट्रैक्टिव लगे। एक दिन हरी भाई अपने दोस्तों, प्रबोध जोशी, तरला मेहता और महेश देसाई के साथ मुंबई के जयहिंद कॉलेज में बैठे थे।

ये सभी उस वक्त के एस्पायरिंग एक्टर्स थे। ये लोग उस ज़माने के टॉप स्टार्स और उनके नाम की कहानियों के बारे में डिस्कशन कर रहे थे। अचानक हरी भाई खड़े हुए और बोले,"मेरा नाम हरीहर जरीवाला फिल्मों के लिहाज से फिट नहीं बैठता। मैं कोई दूसरा नाम रखने के बारे में सोच रहा हूं।" 

फिर दोस्तों के साथ काफी देर तक सोच-विचारने के बाद तय हुआ कि हरी भाई का फिल्मी नाम अंग्रेजी के एस लैटर से शुरू होगा। क्योंकि उनकी मां का नाम भी एस से ही शुरू होता है। 

हरी भाई ये भी बोले कि उनके नाम के आखिर में कुमार भी होना ही चाहिए। क्योंकि कुमार सरनेम वाले एक्टर्स फिल्म इंडस्ट्री पर छाए हुए हैं। 

और फाइनली उस दिन दोस्तों के साथ चली एक लंबी डिबेट के बाद तय हुआ कि हरीहर जरीवाला अब फिल्मों में संजय कुमार के नाम से जाने जाएंगे। आओ प्यार करें और रमत रामाडे राम नाम की फिल्म के क्रेडिट रोल में इनका नाम संजय कुमार ही दिया गया था। 

और आखिरकार संजय कुमार बन गए संजीव कुमार

लेकिन साल 1964 में कुछ ऐसा हुआ कि हरी भाई जो अब संजय कुमार बन चुके थे। उन्हें एक दफा फिर से अपना नाम बदलना पड़ा। दरअसल, 1964 में आई फिल्म 'दोस्ती' में फिरोज़ खान के छोटे भाई संजय खान ने भी काम किया था। 

दोस्ती बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त हिट रही और रातों-रात संजय खान भारत के नए फिल्मस्टार बन गए। जिस वक्त 'दोस्ती' रिलीज़ हुई थी उस वक्त हरी भाई उर्फ संजय कुमार 'निशान' और 'बादल' नाम की फिल्मों की शूटिंग कर रहे थे। 

संजय खान को दोस्ती फिल्म से मिली पॉप्युलैरिटी ने एक बार फिर से हरी भाई को अपने फिल्मी नाम के लिए टेंशन में ला दिया। हरी भाई जानते थे कि एक ही वक्त में फिल्म इंडस्ट्री में संजय नाम के दो एक्टर जम नहीं पाएंगे। 

वो इतने परेशान थे कि 'बादल' के डायरेक्टर अस्पी ईरानी ने भी उनकी परेशानी भांप ली। और जब अस्पी ईरानी को पता चला कि हरी भाई उर्फ संजय कुमार किस वजह से परेशान हैं तो उन्होंने हरी भाई को सलाह दी कि उन्हें एक बार फिर से अपने नाम में बदलाव करना चाहिए। 

लेकिन ये करना हरी भाई को इसलिए सही नहीं लग रहा था क्योंकि उनकी दो फिल्में, 'आओ प्यार करें' व 'रमत रामाडे' राम संजय कुमार के नाम से रिलीज़ हो चुकी थी। 

ऐसे में कहीं ऐसा ना हो कि पब्लिक को उनका बार-बार नाम बदलना हजम ना हो पाए। लेकिन अस्पी ईरानी ने हरी भाई को समझाया कि 'आओ प्यार करें' में तो सारा फोकस जॉय मुखर्जी पर था। 

और 'रमत रामाडे राम' एक रीज़नल फिल्म थी। ऐसे में कोई तुम्हारे नाम पर ध्यान नहीं देगा। अस्पी ईरानी की ये बात हरी भाई को समझ में आ गई। और इस तरह हरीहर जरीवाला उर्फ संजय कुमार बने द लैजेंड संजीव कुमार।

लग गया Sanjeev Kumar संजीव कुमार पर बी-ग्रेड हीरो का ठप्पा

हरीहर जरीवाला संजय कुमार से संजीव कुमार तो बन गए। लेकिन उन्हें काम छोटे बजट की फिल्मों में ही मिल रहा था। जैसे हुस्न और इश्क(1966), अली बाबा और चालीस चोर(1966), आयेगा आने वाला(1967), गुनहगार(1967) व गुनाह और कानून(1970)। इन फिल्मों से संजीव कुमार का खर्च तो चल रहा था। 

लेकिन ना तो इनके करियर को कोई दिशा मिल पा रही थी। और ना ही इनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो रही थी। ऊपर से इन पर स्टंट फिल्मों का हीरो(जिन्हें उस दौर में सी-ग्रेड फिल्में भी माना जाता था) उसका ठप्पा भी लग गया। उस पूरे कालखंड में संजीव कुमार जी को कुछ बड़ी और शानदार फिल्में भी मिली थी। 

जैसे डायरेक्टर कामरान की बदनाम फरिश्ते, अस्पी ईरानी की रिटर्न ऑफ कैदी नंबर 911, एस मेंहदी की घर की इज़्जत, महेश कोल की हम कहां जा रहे हैं, समीर चौधरी की मिट्टी के देव, क़मर नारवी की चांद फिर निकला और दया किशन सप्रू की जीवन चलने का नाम। लेकिन बदकिस्मती से ये सारी फिल्में शेल्व्ड हो गई। हालाकिं इनमें से इक्का-दुक्का बाद में बनी तो। लेकिन किसी और हीरो के साथ। 

सफेत कुर्ते-पाजामे ने फिर कराया रिजेक्ट

इस सब की वजह से संजीव कुमार डिप्रेशन में भी आ गए थे। और उन्होंने तय कर लिया था कि वो फिल्मों का चक्कर छोड़कर कुछ और काम करेंगे। इसी बीच बीआर चोपड़ा ने ऐलान कर दिया कि वो आदमी और इंसान(1969) नाम की एक नई फिल्म पर काम शुरू करने जा रहे हैं। और उन्हें एक्टर्स की तलाश है। 

एक आखिरी कोशिश के इरादे से संजीव कुमार ने फैसला किया कि वो बीआर चोपड़ा से जाकर मिलेंगे और उस फिल्म में काम मांगेंगे। ताकि कम से कम उन पर लगा ये सी-ग्रेड फिल्मों का एक्टर होने का ठप्पा तो हटे। और संजीव कुमार इतनी हड़बड़ी में थे कि बीआर चोपड़ा से मिलने भी वो अपने सफेद कुर्ते-पायजामे में ही चले गए। 

संजीव को कुर्ते-पायजामे में देखकर बीआर चोपड़ा और यश चोपड़ा को बड़ा अजीब लगा। और उन्होंने संजीव से साफ कह दिया कि हम आपको अपनी फिल्म में कास्ट नहीं करेंगे। और इस तरह जिस रोल की उम्मीद में संजीव कुमार बीआर चोपड़ा से मिलने गए थे, वो फाइनली फिरोज़ खान साहब को मिल गया। 

साबुन का धंधा शुरू करने वाले थे संजीव कुमार

बीआर चोपड़ा वाली घटना के बाद तो संजीव कुमार जी ने तय ही कर लिया था कि अब वो फिल्मों में करियर बनाने की अपनी ज़िद को त्याग देंगे। उन्होंने इस बात पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया कि ज़िंदगी बसर करने के लिए आखिर वो कौन सा धंधा चुनेंगे। फिर एक दिन संजीव कुमार अपने दोस्त सुधीर दलवी के घर पहुंचे। 

उनके पास साबुनों से भरा एक बैग था। उन्होंने एक जैल सॉप सुधीर दलवी को दिखाते हुए कहा,"मुझे नहीं लगता कि इन डायरेक्टर्स-प्रोड्यूसर्स को किसी टैलेंटेड एक्टर की ज़रूरत है। मैं अब इस संघर्ष से थक चुका हूं। मैंने फैसला कर लिया है कि अब मैं साबुन के बिजनेस में उतरूंगा।" 

सुधीर दलवी को संजीव कुमार के मुंह से ये बातें सुनकर बड़ा अजीब लगा। उन्हें दुख हुआ। ये सोचकर कि कल तक उनका ये दोस्त फिल्मों को लेकर कितना उत्साहित रहता था। 

लेकिन आज ये अपने सपनों को दरकिनार कर साबुन बेचने की बातें कर रहा है। सुधीर दलवी ने संजीव कुमार को समझाते हुए कहा,"तुम हिम्मत मत हारो। तुम्हारा वक्त भी आएगा और जल्दी ही आएगा। तुम बस कुछ दिन और टिके रहो। देखना जल्द ही तुम्हारी तकदीर बदल जाएगी।" 

फिर यूं बदल गई Sanjeev Kumar की किस्मत

सुधीर दलवी की बात संजीव कुमार जी ने मान ली। व कुछ महीने और संघर्ष करने का फैसला किया। और आखिरकार दोस्त सुधीर दलवी की बात सच साबित हुई। संजीव कुमार जी की ज़िंदगी ने एक ऐसा मोड़ लिया जहां से उनके सारे दुख, सारी परेशानियां खत्म होने लगी। और वो सफलता के पथ पर हर दिन आगे बढ़ते चले गए। 

संजीव कुमार जी को सफलता मिलने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प नहीं है। वो कहानी भी किसी दिन किस्सा टीवी पर ज़रूर कही जाएगी। फिलहाल तो ये बताना आपको ज़रूरी लग रहा है कि चोपड़ा ब्रदर्स ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनसे उस वक्त गलती हो गई थी जब संजीव कुमार कुर्ता-पजामा पहनकर उनके पास काम मांगने आए थे। 

वो संजीव कुमार के टैलेंट का अंदाज़ा नहीं लगा पाए। लेकिन बाद में उन्हें अहसास हो गया था कि संजीव कुमार कितने ज़बरदस्त अदाकार हैं। और फिर तो संजीव कुमार जी को चोपड़ा ब्रदर्स ने त्रिशूल(1978), पति पत्नी और वो(1978), सिलसिला(1981), और सवाल(1982) में कास्ट किया।

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