Dadamoni Ashok Kumar | दादामुनि अशोक कुमार की कहानी इतने विस्तार से कहीं और पढ़ने को नहीं मिलेगी | Biography
एक आम धारणा है कि गांगुली भाईयों(अशोक कुमार, अनूप कुमार व किशोर कुमार) का जन्म मध्य प्रदेश के खंडवा में हुआ था। ये बात अशोक कुमार जी के बारे में सही नहीं है। हां, उनके अन्य भाई-बहन ज़रूर खंडवा में जन्मे थे। लेकिन अशोक कुमार का जन्म भागलपुर, अपने ननिहाल में हुआ था। उनका ननिहाल बेहद समृद्ध था।
Dadamoni Ashok Kumar Biography - Photo: Social Media
Ashok Kumar की मां गौरी रानी देवी भागलपुर की मशहूर हस्ती, राजा शिवचंद्र बनर्जी की प्रपौत्री थी। उस ज़माने में प्रथा थी कि बेटी के पहले बच्चे का जन्म मायके में हो चाहिए। Ashok Kumar जब जन्मे थे तब उनके ननिहाल में बड़े जश्न का आयोजन किया गया था। हवेली को फूलों से सजाया गया था। खूब नाच-गाना, आतिशबाज़ी और दावत हुई थी। घर का पहला नाति जो आया था।
ये अशोक कुमार के नाना थे जिन्होंने उनका नाम अशोक रखा था। सोशल मीडिया पर तमाम जगह लोग कहते हैं कि अशोक कुमार जी का नाम कुमुदलाल गांगुली था। लेकिन फिल्म लाइन में आने के बाद उन्होंने अपना नाम कुमुदलाल से बदलकर अशोक कुमार कर लिया था। ये बात सही नहीं है।
स्वंय Ashok Kumar जी ने एक इंटरव्यू में अपने नाम की कहानी पर रोशनी डालते हुए बताया था कि वास्तव में उनके नाना ने उन्हें अशोक नाम दिया था। वो नाना की पसंद का नाम था। जब Ashok Kumar पैदा हुए थे तब नाना ने उनके लिए लंदन से एक पेटी भी मंगाई थी जिस पर उन्होंने अशोक कुमार नाम लिखवाया था।
लेकिन चूंकि ये मिथुन राशि के थे तो इनका नाम 'क' से रखा जाना ज़रूरी था। ऐसे नाना ने इनका एक और नाम रखा। वो नाम था काशी विश्वेश्वर। मगर नाना का दिया वो दूसरा नाम, काशी विश्वेशर अशोक कुमार के पिता कुंजलाल गांगुली को पसंद नहीं था।
लोग अक्सर कुंजलाल गांगुली जी से कहते थे कि काशी विश्वेश्वर नाम काफी बड़ा है। कोई छोटा और आसानी से पुकारा जा सकने वाला नाम होना चाहिए। आखिरकार पिता ने इन्हें नाम दिया कुमुदलाल गांगुली। लेकिन वो सिर्फ कागज़ी नाम बनकर ही रह गया।
लोग उन्हें अशोक ही कहकर पुकारते रहे। अशोक नाम उनके साथ स्कूल-कॉलेज में भी जुड़ा रहा। स्कूल-कॉलेज के सर्टिफिकेट्स में तो अशोक कुमार का नाम कुमुदलाल गांगुली ही लिखा जाता था। मगर उनके सहपाठी, यहां तक की अध्यापक भी उन्हें अशोक ही कहते थे।
ये तो रही अशोक कुमार जी के नाम की कहानी। अब बात करेंगे कि कैसे अशोक कुमार फिल्मी दुनिया में आए। जबकी उनके पिता उन्हें अपनी तरह एक वकील बनाना चाहते थे। पिता कुंजलाल गांगुली ने अशोक कुमार को कानून की पढ़ाई करने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी लॉ कॉलेज भेजा।
यूं तो अशोक कुमार पढ़ने-लिखने में काफी अच्छे थे। लेकिन कलकत्ता में उन्हें फिल्में देखने का शौक लग गया था। जब भी उन्हें मौका मिलता था वो फिल्में देखने पहुंच जाते थे। उस दौरान अशोक कुमार जी ने कई हिंदी, बंगाली व अंग्रेजी फिल्में देखी थी। लेकिन दो फिल्में ऐसी थी जिन्होंने अशोक कुमार को बेहद प्रभावित किया था।
वो थी चंडीदास(1932) और पुरणभगत(1933)। ये दोनों ही फिल्में उस दौर में बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री के बहुत बड़े नाम रहे देबकी बोस ने बनाई थी। न्यू थिएटर्स के बैनर तले पुरणभगत को हिंदी में बनाया गया था। वो देबकी बोस की पहली हिंदी फिल्म थी।
इन दोनों फिल्मों को देखने के बाद अशोक कुमार फिल्मी दुनिया से जुड़ने के लिए मचलने लगे। उन्हें लगने लगा कि वो वकालत के लिए नहीं, फिल्में बनाने के लिए इस दुनिया में आए हैं। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि उस समय अशोक कुमार फिल्में बनाना सीखने के बारे में सोच रहे थे।
वो तब एक्टर कतई नहीं बनना चाहते थे। क्योंकि ये वो ज़माना था जब माना जाता था कि अच्छे घरों के लोग फिल्मों या नौटंकियों में काम नहीं करते हैं। एक दिन अशोक कुमार को पता चला कि जर्मनी से हिमांशु राय और उनकी पत्नी देविका रानी भारत आए हैं।
जर्मनी में रहकर हिमांशु राय ने उस वक्त की लेटेस्ट टैक्नोलॉजी से फिल्म मेकिंग सीखी थी। अब वो जर्मन टैक्नीशियन्स की एक टीम साथ लेकर बंबई में अपना खुद का फिल्म स्टूडियो शुरू करने जा रहे थे। अशोक कुमार ने सोचा कि अगर वो भी जर्मनी जाकर फिल्म मेकिंग सीखेंगे तो उनके लिए बहुत अच्छा रहेगा। और अगर हिमांशु राय जर्मनी के किसी बढ़िया से संस्थान में उनके दाखिला के लिए कोई सिफारिशी चिट्ठी लिख दें तो वो सोने पे सुहागा वाली बात हो जाएगी।
लेकिन सवाल ये था कि हिमांशु राय से संपर्क कैसे किया जाए? और इस सवाल का जवाब था "एस. मुखर्जी", जिन्हें दुनिया आज फिल्मालय स्टूडियोज़ के संस्थापक शशधर मुखर्जी के नाम से जानती है। एक्ट्रेस काजोल इन्हीं शशधर मुखर्जी की पौत्री हैं।
शशधर मुखर्जी अशोक कुमार के सगे बहनोई थे। उनकी शादी अशोक कुमार की बहन सती देवी से हुई थी। सती देवी उम्र में अशोक कुमार से छोटी थी। उनसे छोटे थे अनूप कुमार और किशोर कुमार। यानि अशोक कुमार शशधर मुखर्जी के बड़े साले थे। जिन दिनों अशोक कुमार कलकत्ता के प्रेसीडेंसी लॉ कॉलेज में वकालत की पढ़ाई कर रहे थे उन्हीं दिनों शशधर मुखर्जी बंबई के मशहूर "फेमस स्टूडियोज़" में साउंड इंजीनियर की हैसियत से काम कर रहे थे।
अशोक कुमार ने अपने बहनोई शशधर मुखर्जी को चिट्ठी लिखकर आग्रह किया था। चूंकि शशधर मुखर्जी की जान-पहचान हिमांशु राय से काफी अच्छी थी तो उन्होंने अशोक कुमार को बंबई आने का न्यौता दे दिया। अशोक कुमार जी के पास उस समय पैंतीस रुपए थे। उनके पिता कुंजलाल गांगुली ने वो रुपए एग्ज़ाम फीस भरने के लिए दिए थे।
अशोक कुमार ने उन्हीं रुपयों से एक ट्रेन का थर्ड क्लास टिकट खरीदा और बंबई आ गए। शशधर मुखर्जी ने अशोक कुमार को हिमांशु राय से मिलाया। हिमांशु राय को जब पता चला कि ये लड़का वकालत की पढ़ाई कर रहा है तो उन्हें बहुत अच्छा लगा। उन्होंने अशोक कुमार से कहा,"मैं चाहता हूं फिल्मों में पढ़े-लिखे लोग भी आएं।"
उस वक्त तक बॉम्बे टॉकीज़ की इमारत का निर्माण चल रहा था। जिस दिन अशोक कुमार और हिमांशु राय की पहली मुलाकात हुई थी उस दिन वहां जर्मन डायरेक्टर फ्रेंज़ ऑस्टन भी मौजूद थे। फ्रेंज़ ऑस्टन भी हिमांशु राय की टीम का हिस्सा थे। अशोक कुमार को देखकर फ्रेंज़ ऑस्टन को लगा कि ये नौजवान हीरो बनने आया होगा।
उन्होंने हिमांशु राय से कहा,"मैं इस लड़के का स्क्रीनटेस्ट लेना चाहता हूं।" फ्रेंज़ ऑस्टरन ने अशोक कुमार को एक कैमरे के सामने खड़ा किया गया। और कोई गीत सुनाने को कहा। कुछ देर सोचने के बाद अशोक कुमार ने एक भजन गुनगुनाया जो कभी उनकी मां बचपन में उन्हें सिखाती थी।
अशोक कुमार का गाना जब खत्म हुआ तो फ्रेंज़ ऑस्टन ने हिमांशु राय से कहा,"ये लड़का सही नहीं रहेगा। इसके जबड़े की बनावट अच्छी नहीं है।" इस तरह अपने जीवन के पहले स्क्रीनटेस्ट में अशोक कुमार फेल हो गए। हालांकि उन्हें फेल होने का कोई दुख नहीं हुआ। क्योंकि उस समय वो एक्टर बनना भी नहीं चाहते थे।
फ्रेंज़ ऑस्टन ने तो अशोर कुमार से ये भी कहा था कि बेहतर है तुम कलकत्ता वापस चले जाओ और अपनी पढ़ाई पूरी करो। लेकिन अशोक कुमार की किस्मत फ्रेंज़ ऑस्टन की बात मानने को तैयार नहीं थी। ऑस्टन ने जब अशोक कुमार को रिजेक्ट कर दिया तो हिमांशु राय ने उनसे कहा,"तुम हमारी लैबोरेटरी में काम करो। तुम फिल्में धोना, प्रिंट करना और एडिट करना सीख जाओगे।"
अशोक कुमार ने बिना देर किए हिमांशु राय का वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इससे उनके दो फायदे हुए। एक तो वो एक्टिंग से बच गए। दूसरे उन्हें कुछ टैक्नीकल काम सीखने का मौका मिल रहा था। अगले एक साल तक अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज़ में लैब टैक्नीशियन की हैसियत से काम करते रहे। वो अपने काम से खुश थे।
लेकिन उनकी किस्मत उस काम से खुश नहीं था। क्योंकि किस्मत उस काम के लिए अशोक कुमार को कलकत्ता से बॉम्बे नहीं लाई थी। किस्मत को तो उन्हें एक्टर बनाना था। एक स्टार एक्टर। क्योंकि वही उनकी खाताबुक में लिखा भी था। इसलिए अशोक कुमार की किस्मत ने एक दिन एक तगड़ी चाल चल दी।
1936 में बॉम्बे टॉकीज़ में एक फिल्म शुरू हुई थी जिसका नाम था "जीवन नैया।" उस फिल्म के हीरो थे नज्म-उल-हसन और हीरोइन थी हिमांशु राय की पत्नी देविका रानी। शूटिंग के दौरान नज्म-उल-हसन और देविका रानी एक-दूजे से इश्क करने लगे। एक दिन वो दोनों बॉम्बे टॉकीज़ से ही नहीं, बॉम्बे से भी भाग गए। वो दोनों कहां गए थे किसी को नहीं पता था।
फिल्म की काफी शूटिंग हो चुकी थी। उस वक्त फिल्म को बंद करने का मतलब था मोटा घाटा उठाना। हिमांशु राय कोई घाटा सहन करने की स्थिति में तब नहीं थे। उन्होंने सारा पैसा फाइनेंशर्स से उधार लिया था। हिमांशु राय की स्थिति बड़ी खराब हो गई।
तब अशोक कुमार के बहनोई शशधर मुखर्जी हिमांशु राय की मदद के लिए आगे आए। उस वक्त तक शशधर मुखर्जी भी साउंड इंजीनियर के तौर पर बॉम्बे टॉकीज़ से जुड़ चुके थे। देविका रानी शशधर मुखर्जी को अपना भाई मानती थी। शशधर मुखर्जी ने किसी तरह देविका रानी से संपर्क किया जो उस वक्त नज्म-उल-हसन के साथ कलकत्ता में मौजूद थी।
उस ज़माने में कलकत्ता में भी बड़े पैमाने पर फिल्में बनती थी। कलकत्ता में तब देश के कई बड़े फिल्म प्रोडक्शन हाउसेज़ हुआ करते थे। देविका रानी और नज्म-उल-हसन की प्लानिंग थी कि वो दोनों कलकत्ता की किसी फिल्म कंपनी में नौकरी पकड़ लेंगे। उस दौर में एक्टर्स की फीस नहीं होती थी।
एक्टर्स फिल्म प्रोडक्शन हाउसेज़ में नौकरी करते थे जहां से उन्हें मासिक वेतन मिलता था। कहा जाता है कि नज्म-उल-हसन को उस ज़माने की कलकत्ता की बहुत बड़ी फिल्म कंपनी "न्यू थिएटर्स" में नौकरी मिल भी गई थी। शशधर मुखर्जी का संपर्क जब देविका रानी से हुआ तो वो उनसे मिलने कलकत्ता पहुंच गए।
वो किसी तरह समझा-बुझाकर, हिमांशु राय को होने वाले तगड़े नुकसान की दुहाई देकर देविका रानी को वापस ले आए। देविका रानी वापस आई तो हिमांशु राय की खत्म होती सांसें भी लौट आई। लेकिन उन्होंने फैसला कर लिया था कि अब नज्म-उल-हसन को वो इस फिल्म में तो क्या, अपनी कंपनी में भी नहीं रखेंगे।
उन्होंने नज्म-उल-हसन को बॉम्बे टॉकीज़ की नौकरी से डिसमिस कर दिया। कहा तो ये भी जाता है कि हिमांशु राय ने नज्म-उल-हसन का करियर खत्म करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने न्यू थिएटर्स से भी नज्म-उल-हसन को निकलवा दिया। किसी और फिल्म कंपनी में भी नज्म-उल-हसन को नौकरी नहीं करने दी।
नज्म-उल-हसन के बाद "जीवन नैया" फिल्म के लिए दूसरे हीरो की ज़रूरत थी। हिमांशु राय को समझ नहीं आ रहा था कि वो किसे हीरो लें। फिर एक दिन उन्हें ख्याल आया कि अशोक भी तो हीरो बन सकता है। उन्होंने अशोक कुमार से बात की। उनसे कहा कि तुम मेरी फिल्म में हीरो बनोगे।
हिमांशु राय की फिल्म में काम करने की बात सुनकर अशोक कुमार टेंशन में आ गए। क्योंकि उस वक्त तक उनके माता-पिता जान चुके थे कि अशोक कानून की पढ़ाई छोड़-छाड़कर बम्बई चला गया है और वहां किसी फिल्म कंपनी में नौकरी कर रहा है। अशोक कुमार के पिता की समाज में बड़ी इज्ज़त थी। जबकी उस समय का समाज फिल्मों में काम करने वाले लोगों को हीन भावना से देखता था। इसलिए अशोक कुमार जी के माता-पिता बहुत दुखी हुए थे।
हालांकि अशोक कुमार बड़ी मुश्किलों से अपने माता-पिता को ये समझाने में कामयाब हो गए थे कि वो फिल्म कंपनी की लैब में काम करते हैं। फिल्म में काम नहीं करते हैं। उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने भी उनके माता-पिता को काफी समझाया था। दामाद की तरफ से भरोसा मिलने के बाद ही अशोक कुमार के माता-पिता ने फिक्र दूर हुई थी।
यही वजह है कि जब हिमांशु राय ने अशोक कुमार से "जीवन नैया" फिल्म का हीरो बनने को कहा तो वो परेशान हो गए थे। उन्होंने हिमांशु राय को अपनी दिक्कत बताई भी। लेकिन हिमांशु राय मानने को तैयार नहीं थे। वो अशोक कुमार से "जीवन नैया" में एक्टिंग करने की विनती किए जा रहे थे। अशोक कुमार को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए।
बुरी तरह परेशान अशोक कुमार एक दिन ये सोचकर गंजे हो गए कि शायद अब हिमांशु राय उन्हें फिल्म में लेने का इरादा छोड़ देंगे। लेकिन हिमांशु राय पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने अशोक कुमार से कहा,"कोई बात नहीं। हम शूटिंग तब शुरू करेंगे जब तुम्हारे बाल फिर से उग आएंगे।"
यानि हिमांशु राय अशोक कुमार को कुमार को छोड़ने के मूड में बिल्कुल भी नहीं थे। एक दिन उन्होंने नोटिस किया कि अशोक कुमार कुछ ज़्यादा ही परेशान है। तब उन्होंने अशोक कुमार से कहा,"तुम बस इस फिल्म में काम कर लो। इसके बाद किसी और फिल्म में काम करने को हम तुमसे नहीं कहेंगे।"
हिमांशु राय की वो बात सुनकर अशोक कुमार ने सोचा कि एक फिल्म के बाद अगर ये छोड़ने को तैयार हैं तो फिर एक्टिंग करने में कोई बुराई नहीं है। एक फिल्म से तो इनके घरवालों को कभी पता नहीं चलेगा कि इन्होंने किसी फिल्म में एक्टिंग भी की थी। अशोक कुमार ने "जीवन नैया" में काम करने की हामी भर दी।
इस तरह साल 1936 में रिलीज़ हुई जीवन नैया दादामुनी अशोक कुमार की डेब्यू फिल्म बनी। और देविका रानी उनकी पहली हीरोइन बनी। "जीवन नैया" को दर्शकों से बढ़िया प्रतिक्रिया मिली थी। फिल्म की कामयाबी ने अशोक कुमार को भी उत्साहित किया।
इसिलिए जब हिमांशु राय ने उनसे एक और फिल्म में काम करने को कहा तो उन्होंने बहुत ज़्यादा ना-नुकुर नहीं की। अशोक कुमार की दूसरी फिल्म रही जन्मभूमि। वो फिल्म भी 1936 में ही रिलीज़ हुई थी। उस फिल्म का गीत "जय जय जननी जन्मभूमि" बहुत लोकप्रिय हुआ था।
उस समय भारत की आज़ादी का आंदोलन ज़ोर-शोर से चल रहा था। जन्मभूमि फिल्म का वो गीत स्वतंत्रता सेनानियों का पसंदीदा बन गया था। लगे हाथ हिमांशु राय ने अशोक कुमार से एक और फिल्म में काम करा लिया। उस फिल्म का नाम था "अछूत कन्या।" वो फिल्म तो इतनी कामयाब हुई कि अशोक कुमार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के नए स्टार बन गए।
उन्हें खूब सराहा गया। सम्मान दिया गया। "अछूत कन्या" की सफलता से मिली शोहरत ने एक्टिंग के प्रति अशोक कुमार की सोच बदल दी। वो भी शोहरत का लुत्फ़ उठाने लगे। उन्होंने फ़ुल टाइम एक्टर बनने का फ़ैसला कर लिया। फिर तो एक के बाद एक, अशोक कुमार की सात फिल्में हिट हो गई।
जहां शुरुआत की अधिकतर फिल्मों में अशोक कुमार की हीरोइन देविका रानी हुआ करती थी, तो वहीं 1940 के दशक की शुरुआत में लीला चिटनिस संग उनकी जोड़ी खूब जमी। लीला चिटनिस संग अशोक कुमार जी की सबसे प्रमुख फिल्में थी बंधन(1940), आज़ाद(1940) और झूला(1941)।
देखते ही देखते अशोक कुमार 1940 के दौर के सबसे लोकप्रिय हीरो बन गए। साल 1943 में अशोक कुमार एक ऐसी फिल्म में दिखे जो भारत की पहली फिल्म बनी जिसने बॉक्स ऑफिस पर एक करोड़ रुपए से ज़्यादा का कलैक्शन किया था। जबकी उसका बजट था कुल 2 लाख रुपए।
उस फिल्म का नाम था "किस्मत।" बॉक्स ऑफिस का डेटा देने वाली वेबसाइट "सैकनिल्क डॉट कॉम" के मुताबिक, किस्मत ने कुल 2 करोड़ रुपए का ग्रॉस कलैक्शन किया था। बाद में राज कपूर की बरसात(1949) ने किस्मत का रिकॉर्ड तोड़ा था। "बरसात" ने ढाई करोड़ रुपए का ग्रॉस कलैक्शन किया था।
हालांकि उसका बजट किस्मत की तुलना में बहुत ज़्यादा था। बरसात को बनाने में 35 लाख रुपए खर्च हुए थे। यानि देखा जाए तो अशोक कुमार की फिल्म "किस्मत" कमाई के मामले में "बरसात" से कहीं आगे थी। 1950 के दशक के शुरुआती सालों में दादामुनि अशोक कुमार ने फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू कर दी थी।
करियर की इस दूसरी पारी में अशोक कुमार ने और ज़्यादा सफलता हासिल की। हालांकि बीच-बीच में वो कुछ फिल्मों में मुख्य हीरो की भूमिकाओं में भी नज़र आते रहे। छह दशक लंबे करियर में अशोक कुमार जी ने लगभग साढ़े तीन सौ फिल्मों में काम किया। हिंदी के अलावा कुछ बंगाली, मराठी व तेलुगू फिल्मों में भी उन्होंने काम किया था।
कुछ टीवी सीरियल्स में भी वो नज़र आए। साल 1999 में अशोक कुमार जी की आखिरी फिल्म रिलीज़ हुई थी जिसका नाम था "आंखों में तुम हो।" इस फिल्म के दो साल बाद, 10 दिसंबर 2001 को 90 बरस की उम्र में अशोक कुमार जी का निधन हो गया।
जबकी उनका जन्म हुआ था 13 अक्टूबर 1911 को। अजीब इत्तेफाक है कि 13 अक्टूबर को ही अशोक कुमार जी के सबसे छोटे भाई और भारत के महानतम पार्श्वगायक किशोर कुमार की मृत्यु हुई थी। साल था 1987. जिस दिन किशोर कुमार की मृत्यु हुई थी उस दिन अशोक कुमार जी का 76वां जन्मदिन था।
दादामुनि अशोक कुमार के कुछ अन्य रोचक तथ्य।
साल 2013 में एक फिल्म रिलीज़ हुई थी जिसका नाम था "लव इन बॉम्बे।" सत्तर के दशक की शुरुआत में उस फिल्म का निर्माण अशोक कुमार जी के भांजे जॉय मुखर्जी ने शुरू किया था। लेकिन किन्हीं कारणों से फिल्म तब रिलीज़ नहीं हो सकी थी।
उस फिल्म में अशोक कुमार के छोटे भाई और भारत के महानतम गायकों में से एक किशोर कुमार ने भी काम किया था। 1960-70 के दौर के एक और नामी चरित्र अभिनेता रहमान भी उस फिल्म में थे। खुद जॉय मुखर्जी ही उस फिल्म के हीरो थे। लेकिन किस्मत का अजीब खेल देखिए।
2013 में जब वो फिल्म रिलीज़ हुई थी तब दादामुनि अशोक कुमार को इस दुनिया से गए 12 साल हो चुके थे। किशोर कुमार जी तो उनसे भी बहुत पहले ही चले गए थे। जबकी किशोर दा से तीन साल पहले ही अभिनेता रहमान का भी देहांत हो गया था। और उस फिल्म के रिलीज़ होने से लगभग 1 साल पहले जॉय मुखर्जी की भी मृत्यु हो गई थी।
अशोक कुमार जी की बेटी भारती जाफरी ने एक दफा बताया था कि उनके पिता ने फरारी कार के बारे में बहुत सुन रखा था। इसलिए जैसे ही मौका मिला उन्होंने फरारी खरीद ली। पहले दिन जब अशोक कुमार वरली इलाके में मौजूद अपने घर से वो फरारी लेकर निकले तो मलाड स्थित बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो तक पहुंचने में उन्हें मात्र 15 मिनट लगे।
ये दूरी कवर करने में आज के ज़माने में दो घंटे लग जाते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि अगले ही दिन अशोक कुमार वो फरारी शोरूम को वापस कर आए। वजह थी फरारी की तूफानी रफ्तार।
वो कार इतनी तेज़ चलती थी कि अशोक कुमार जी के मन में डर बैठ गया कि ऐसा ना हो इस गाड़ी से किसी दिन वो किसी को टक्कर मार दें। या खुद कहीं टकराकर मारे जाएं। अशोक कुमार ने वो फरारी साल 1943 में अपनी फिल्म किस्मत के रिलीज़ होने से कुछ ही दिन पहले खरीदी थी।
अशोक कुमार सिर्फ एक्टर ही नहीं थे। वो होमियोपैथी मैडिसिन के बहुत अच्छे जानकार भी थे। यूं तो उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। लेकिन फिर भी वो लोगों का इलाज होमियोपैथी दवाईयों से करते थे। उनके पास दूर-दूर से लोग अपनी बीमारी का ईलाज कराने आते थे।
अशोक कुमार की नातिन और एक्ट्रेस अनुराधा पटेल ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अशोक कुमार ने एक दफा एक आदमी का गैंगरीन ठीक कर दिया था। जबकी अस्पताल वाले उस आदमी से पैर कटाने को कह चुके थे। मुंबई के एक अस्पताल ने तो अपने एक वार्ड का नाम अशोक कुमार वार्ड रखा था।
अशोक कुमार की उम्र 20-21 साल थी जब उनके माता-पिता ने उनकी शादी तय कर दी थी। लेकिन वो शादी टूट गई। क्योंकि किसी तरह लड़की के घरवालों को पता चल गया था कि लड़का फिल्मों में काम करता है। और उस ज़माने में फिल्मों में काम करना सबसे घृणित कार्यों में से एक माना जाता था।
और जगहों पर रिश्ते की बात चली तो फिल्मों में काम करने की वजह से वहां भी बात नहीं बन सकी। किसी तरह अशोक कुमार के पिता कुंजलाल गांगुली ने कलकत्ता में एक रिश्ता पक्का कर दिया। लड़की दिखाने वो अशोक कुमार जी को भी साथ ले गए।
अशोक कुमार ने जब कलकत्ता में लड़की को देखा तो उन्हें याद आया कि ये तो वही लड़की है जिसे वो पहले भी एक दफा देख चुके थे जब वो आठ साल की थी। अशोक कुमार जी की पत्नी का नाम शोभा देवी था। दोनों की उम्र में 10 साल का फर्क था।
साल 1950 में अशोक कुमार की एक फिल्म रिलीज़ हुई थी जिसका नाम था संग्राम। इस फिल्म में अशोक कुमार का किरदार एक एंटी हीरो था। एंटी हीरो उन फिल्मी किरदारों को कहा जाता है जो दिल के तो अच्छे होते हैं। लेकिन जीवन जीने के लिए कोई बुरा पेशा अपना लेते हैं।
संग्राम में अशोक कुमार का किरदार भी कुछ गलत काम करते हुए दिखाई देता है। संग्राम जब रिलीज़ हुई तो दर्शकों ने उसे बहुत पसंद किया। लगभग सोलह हफ्तों तक फिल्म हाउसफुल चली थी। लेकिन फिल्म की इस लोकप्रियता से तत्कालीन बॉम्बे स्टेट सरकार घबरा गई।
सरकार को लगा कि अगर अशोक कुमार जैसा बड़ा स्टार फिल्म में गलत काम करते दिखेगा तो लोगों का उस पर गलत असर पड़ेगा। आखिरकार सरकार ने संग्राम फिल्म को बैन कर दिया। बॉम्बे स्टेट के गृहमंत्री मोरारजी देसाई ने एक पुलिस कमिश्नर को अशोक कुमार के घर ये संदेश लेकर भेजा कि जनता आपको आदर्श मानती है।
आप फिल्मों में बुरे आदमी के किरदार निभाएंगे तो समाज पर गलत असर पड़ेगा। आप ऐसा काम मत किया कीजिए। अशोक कुमार ने उनसे कहा कि फिल्म में उनके कैरेक्टर को आखिर में गोली मार दी जाती है। यानि हमने संदेश दिया है कि बुरा काम करने पर बुरा ही होता है।
अशोक कुमार जी ने काफी कोशिश की थी कि संग्राम पर लगा बैन हटा दिया जाए। लेकिन मोरारजी देसाई नहीं माने। संग्राम पर लगा बैन नहीं हटाया गया। वैसे उस वक्त तक संग्राम 55 लाख रुपए का कलैक्शन कर चुकी थी।
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